श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत । अर्थ- हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में और रजोगुण कर्म में लगाकर मनुष्य पर विजय करता है तथा तमोगुण ज्ञान को ढककर एवं प्रमाद में भी लगाकर मनुष्य पर विजय करता है। व्याख्या- ‘सत्त्वं सुखे सञ्जयति’- सत्त्वगुण साधक को सुख में लगाकर अपनी विजय करता है, साधक को अपने वश में करता है। तात्पर्य है कि जब सात्त्विक सुख आता है, तब साधक की उस सुख में आसक्ति हो जाती है। सुख में आसक्ति होने से वह सुख साधक को बाँध देता है अर्थात उसके साधन को आगे नहीं बढ़ने देता, जिससे साधक सत्त्वगुण से ऊँचा नहीं उठ सकता, गुणातीत नहीं हो सकता। यद्यपि भगवान ने पहले छठे श्लोक में सत्त्वगुण के द्वारा सुख और ज्ञान के संग से बाँधने की बात बतायी है, तथापि यहाँ सत्त्वगुण की विजय केवल सुख में ही बतायी है, ज्ञान में नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में साधक सुख की आसक्ति से ही बँधता है। ज्ञान होने पर साधक में एक अभिमान आ जाता है कि ‘मैं कितना जानकार हूँ!’ इस अभिमान में भी एक सुख मिलता है, जिसके साथ साधक बँध जाता है। इसलिए यहाँ सत्त्वगुण की केवल सुख में ही विजय बतायी है। ‘रजः कर्मणि भारत’- रजोगुण मनुष्य को कर्म में लगाकर अपनी विजय करता है। तात्पर्य है कि मनुष्य को क्रिया करना अच्छा लगता है, प्रिय लगता है। जैसे छोटा बालक पड़े-पड़े हाथ पैर हिलाता है तो उसको अच्छा लगता है और उसका हाथ-पैर हिलाना बंद कर दिया जाए तो वह रोने लगता है। ऐसे ही मनुष्य कोई क्रिया करता है तो उसको अच्छा लगता है और उसकी उस क्रिया को बीच में कोई छुड़ा दे तो उसको बुरा लगता है। यही क्रिया के प्रति आसक्ति है, प्रियता है, जिससे रजोगुण मनुष्य पर विजय करता है।
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