श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
विशेष बात सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण मनुष्य को बाँधते हैं, पर इन तीनों के बाँधने के प्रकार में फर्क है। सत्त्वगुण और रजोगुण ‘संग’ से बाँधते हैं अर्थात सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से तथा रजोगुण कर्मों की आसक्ति से बाँधता है। अतः सत्त्वगुण में ‘सुखसंग और ज्ञानसंग’ बताया तथा रजोगुण में ‘कर्मसंग’ बताया। परंतु तमोगुण में ‘संग’ नहीं बताया; क्योंकि तमोगुण मोहनात्मक है। इसमें किसी का संग करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह तो स्वरूप से ही बाँधने वाला है। तात्पर्य यह हुआ कि सत्त्वगुण और रजोगुण तो संग (सुखासक्ति) से बाँधते हैं, पर तमोगुण स्वरूप से ही बाँधने वाला है। अगर सुख की आसक्ति न हो और ज्ञान का अभिमान न हो तो सुख और ज्ञान बाँधने वाले नहीं होते, प्रत्युत गुणातीत करने वाले होते हैं। ऐसे ही कर्म और कर्मफल में आसक्ति न हो, तो वह कर्म परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कराने वाला होता है।[3] उपर्युक्त तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं और जीव स्वयं प्रकृति और उसके कार्य गुणों से सर्वथा रहित है। गुणों के साथ संबंध जोड़ने के कारण ही वह स्वयं निर्लिप्त, गुणातीत होता हुआ भी गुणों के द्वारा बँध जाता है। अतः अपने वास्तविक स्वरूप का लक्ष्य रखने से ही साधक गुणों के बंधन से छूट सकता है। संबंध- बाँधने से पहले तीनों गुण क्या करते हैं- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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