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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
‘जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शमनम्’- जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों के दुःखरूप दोषों को बार-बार देखने का तात्पर्य है- जैसे आँवा में मटका पकता है, ऐसे ही जन्म से पहले माता के उदर में बच्चा जठराग्नि में पकता रहता है। माता के खाये हुए नमक, मिर्च आदि क्षार और तीखे पदार्थों से बच्चे के शरीर में जलन होती है। गर्भाशय में रहने वाले सूक्ष्म जन्तु भी बच्चे को काटते रहते हैं। प्रसव के समय माता के जो पीड़ा होती है, उसका कोई अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। वैसी ही पीड़ा उदर से बाहर आते समय बच्चे को होती है। इस तरह जन्म के दुःख रूप दोषों का बार-बार विचार करके इस विचार को दृढ़ करना कि इसमें केवल दुःख-ही-दुःख है।
जो जन्मता है, उसको मरना ही पड़ता है- यह नियम है। इससे कोई बच ही नहीं सकता। मृत्यु के समय जब प्राण शरीर से निकलते हैं, तब हजारों बिच्छू शरीर में एक साथ डंग मारते हों- ऐसी पीड़ा होती है। उम्र भर में कमाये हुए धन से, उम्रभर में रहे हुए मकान से और अपने परिवार से जब वियोग होता है और फिर उनके मिलने की संभावना नहीं रहती, तब (ममता-आसक्ति के कारण) बड़ा भारी दुःख होता है। जिस धन को कभी किसी को दिखाना नहीं चाहता था, जिस धन को परिवार वालों से छिपा-छिपाकर तिजोरी में रखा था, उसकी चाबी परिवार वालों के हाथ में पड़ी देखकर मन में असह्य वेदना होती है। इस तरह मृत्यु के दुःख रूप दोषों को बार-बार देखे।
वृद्धावस्था में शरीर और अवयवों की शक्ति क्षीण हो जाती है, जिससे चलने-फिरने, उठने-बैठने में कष्ट होता है। हरेक तरह का भोजन पचता नहीं। बड़ा होने के कारण परिवार से आदर चाहता है, पर कोई प्रयोजन न रहने से घरवाले निरादर, अपमान करते हैं। तब मन में पहले की बातें याद आती हैं कि मैंने धन कमाया है, इनको पाला-पोसा है, पर आज ये मेरा तिरस्कार कर रहे हैं! इन बातों को लेकर बड़ा दुःख होता है। इस तरह वृद्धावस्था के दुःख रूप दोषों को बार-बार देखे। यह शरीर व्याधियों का, रोगों का घर है- ‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्।’ शरीर में वात, कफ आदि से पैदा होने वाले अनेक प्रकार के रोग होते रहते हैं और उन रोगों से शरीर में बड़ी पीड़ा होती है। इस तरह रोगों के दुःख रूप दोषों को बार-बार देखे।
यहाँ बार-बार देखने का तात्पर्य बार-बार चिन्तन करने से नहीं है, प्रत्युत विचार करने से है। जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों के दुःखों को बार-बार देखने से अर्थात विचार करने से उनके मूल कारण- उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों में राग स्वाभाविक ही कम हो जाता है अर्थात भोगो से वैराग्य हो जाता है।
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