श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
त्रयोदश अध्याय
(ख) ‘चित्त’- जैसे प्रत्येक व्यक्ति के शरीरादि ‘अहम्’ के अंतर्गत दृश्य हैं, ऐसे ही ‘अहम्’ भी (मैं, तू, यह और वह के रूप में) एक ज्ञान के अंतर्गत दृश्य है।[2] उस ज्ञान (चेतन) में निर्विकल्प होकर स्थिर हो जाने से परमात्मतत्त्व में स्वतः सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है। फिर अहंकार नहीं रहता। (ग) ‘आनंद’- साधक लोग प्रायः बुद्धि और अहम् को प्रकाशित करने वाले ‘चेतन’ को भी बुद्धि के द्वारा ही जानने की चेष्टा किया करते हैं। वास्तव में बुद्धि के द्वारा जाने अर्थात सीखे हुए विषय को ‘ज्ञान’ की संज्ञा देना और उससे अपने-आपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धि को प्रकाशित करने वाला तत्त्व बुद्धि के द्वारा कैसे जाना जा सकता है? यद्यपि साधक के पास बुद्धि के सिवाय ऐसा और कोई साधन नहीं है, जिससे वह तत्त्व जाना जा सके, तथापि बुद्धि के द्वारा केवल जड संसार की वास्तविकता को ही जाना जा सकता है। बुद्धि जिससे प्रकाशित होती है, उस तत्त्व को बुद्धि नहीं जा सकती है। उस तत्त्व को जानने के लिए बुद्धि से भी संबंध-विच्छेद करना आवश्यक है। बुद्धि को प्रकाशित करने वाले परमतत्त्व में निर्विकल्प रूप से स्थित हो जाने पर बुद्धि से सर्वथा संबंध-विच्छेद हो जाता है। फिर एक ‘आनंद’- स्वरूप (जहाँ दुःख का लेश भी नहीं है) परमात्मतत्त्व ही शेष रह जाता है, जो स्वयं ज्ञानस्वरूप और सत्स्वरूप भी है। इस प्रकार तत्त्व में निर्विकल्प (चुप) हो जाने पर ‘आनंद-ही-आनंद है’ – ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव होने पर फिर अहंकार नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संसार के चिंतन से साधक का कोई प्रयोजन होता नहीं और अचिन्त्य परमात्मतत्त्व चिन्तन में आता नहीं- यही निर्विकल्पता है।
- ↑ किसी सेठ ने सुना कि अमुक दुकान में इतना नफा हुआ है और साथ ही यह भी सुना कि अमुक दुकान में इतना नुकसान हुआ है। इस प्रकार नफा और नुकसान- इन दोनों में तो फर्क है, पर इन दोनों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं हैं; ज्ञान तो एक ही है। अगर ज्ञान एक न होता तो नफा और नुकसान- दोनों की भिन्नता का ज्ञान कैसे होता? इसी तरह ‘मैं’, ‘तू’, ‘यह’ और ‘वह’- ये चारों अलग-अलग होने पर भी इनका प्रकाशक ज्ञान एक ही है। जिस सामान्य प्रकाश में ‘मैं’ में क्रियाएँ होती हैं, उसी प्रकाश में ‘तू, यह और वह’ में भी क्रियाएँ होती हैं। उस सामान्य प्रकाश में ‘मैं, तू, यह और वह’ का भेद नहीं होता है। उस सामान्य प्रकाश का संबंध आदि है तो चारों के साथ है और यदि नहीं है तो किसी के भी साथ नहीं है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज