श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । अर्थ- जो मेरे में श्रद्धा रखने वाले और मेरे परायण हुए भक्त पहले कहे हुए इस धर्ममय अमृत का अच्छी तरह से सेव करते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं। व्याख्या- ‘ये तु’- यहाँ ‘ये’ पद से भगवान ने उन साधक भक्तों का संकेत किया है, जिनके विषय में अर्जुन ने पहले श्लोक में प्रश्न करते हुए ‘ये’ पद का प्रयोग किया था। इसी प्रश्न के उत्तर में भगवान ने दूसरे श्लोक में सगुण की उपासना करने वाले साधकों को अपने मत में (‘ये’ और ‘ते’ पदों से) ‘युक्ततमाः’ बताया था। फिर उसी सगुण-उपासना के साधन बताये और फिर सिद्ध भक्तों के लक्षण बताकर अब उसी प्रसंग का उपसंहार करते हैं। यहाँ ‘ये’ पद उन परम श्रद्धालु भगवत्परायण साधकों के लिए आया है। जो सिद्ध भक्तों के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करते हैं। ‘तु’ पद का प्रयोग प्रकरण को अलग करने के लिए किया जाता है। यहाँ सिद्ध भक्तों के प्रकरण से साधक भक्तों के प्रकरण को अलग करने के लिए ‘तु’ पद का प्रयोग हुआ है। इस पद से ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध भक्तों की अपेक्षा साधक भक्त भगवान को विशेष प्रिय हैं। ‘भद्दधानाः’- भगवत्प्राप्ति हो जाने के कारण सिद्ध भक्तों के लक्षणों में श्रद्धा की बात नहीं आयी; क्योंकि जब तक नित्य प्राप्त भगवान का अनुभव नहीं होता, तभी तक श्रद्धा की जरूरत रहती है। अतः इस पद को श्रद्धालु साधक भक्तों का ही वाचक मानना चाहिए। ऐसे श्रद्धालु भक्त भगवान के धर्ममय अमृतरूप उपदेश को (जो भगवान ने तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक कहा है) भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से अपने में उतारने की चेष्टा किया करते हैं। यद्यपि भक्ति के साधन में श्रद्धा और प्रेम का तथा ज्ञान के साधन में विवेक का महत्त्व होता है, तथापि इससे यह नहीं समझना चाहिए कि भक्ति के साधन में विवेक का और ज्ञान के साधन में श्रद्धा का महत्त्व ही नहीं है। वास्तव में श्रद्धा और विवेक की सभी साधनों में बड़ी आवश्यकता है। विवेक होने से भक्ति-साधन में तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रों में तथा परमात्मतत्त्व में श्रद्धा होने से ही ज्ञान-साधन का पालन हो सकता है। इसलिए भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनों में श्रद्धा और विवेक सहायक हैं। ‘मत्परमाः’- साधक भक्तों का सिद्ध भक्तों में अत्यंत पूज्यभाव होता है। उनकी सिद्धि भक्तों के गुणों में श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणों को आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसार करने के लिए भगवान के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान का चिन्तन करने से और भगवान पर ही निर्भर रहने से वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज