श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अगर सिद्ध भक्तों के लक्षण बताने वाला (सात श्लोकों का) एक ही प्रकरण होता, तो सिद्ध भक्त में राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकारों के अभाव की बात कही शब्दों से और कहीं भाव से बार-बार कहने की जरूरत नहीं होती। इसी तरह चौदहवें और उन्नीसवें श्लोक में ‘संतुष्टः’ पद का तेरहवें श्लोक में ‘समदुःखसुखः’ और अठारहवें श्लोक में ‘शीतोष्णसुखदुःखखेषु समः’ पदों का भी सिद्ध भक्तों के लक्षणों मे दो बार प्रयोग हुआ है, जिससे (सिद्ध भक्तों के लक्षणों का एक ही प्रकरण मानने से) पुनरुक्ति का दोष आता है। भगवान के वचनों में पुनरुक्ति का दोष आना संभव ही नहीं। अतः सातों श्लोकों के विषय को एक प्रकरण न मानकर अलग-अलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है। इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतंत्र (भिन्न-भिन्न) होने से किसी एक प्रकरण के भी सब लक्षण जिसमें हों, वही भगवान का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरण में सिद्ध भक्तों के अलग-अलग लक्षण बताने का कारण यह है कि साधन-पद्धति, प्रारब्ध, वर्ण, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदि के भेद से सब भक्तों की प्रकृति- (स्वभाव) में परस्पर थोड़ा-बहुत भेद रहा करता है। हाँ, राग-द्वेष, हर्ष-शोकादि विकारों का अत्यंताभाव एवं समता में स्थिति और समस्त प्राणियों के हित में रति सबकी समान ही होती है। साधक को अपनी रुचि, विश्वास, योग्यता, स्वभाव आदि के अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे, उसी को आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनाने में लग जाना चाहिए। किसी एक प्रकरण के भी यदि पूरे लक्षण अपने में न आयें, तो भी साधक को निराश नहीं होना चाहिए। फिर सफलता अवश्यम्भावी है। संबंधः पीछे के सात श्लोकों में भगवान ने सिद्ध भक्तों के कुल उनतालीस लक्षण बताये। अब आगे के श्लोक में भगवान अर्जुन के प्रश्न का स्पष्ट रीति से उत्तर देते हैं। |
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