श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति । अर्थ- जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मों में राग-द्वेष का त्यागी है, वह भक्तिमान मनुष्य मुझे प्रिय है। व्याख्या- ‘यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति’- मुख्य विचार चार हैं- (1) राग, (2) द्वेष, (3) हर्ष और (4) शोक।[1] सिद्ध भक्त में ये चारों ही विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसार का प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान से कभी वियोग होता ही नहीं। संसार के साथ कभी संयोग था नहीं, है नहीं, रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। अतः संसार की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है- इस वास्तविकता का अनुभव कर लेने के बाद (जड़ता का कोई संबंध न रहने पर) भक्त का केवल भगवान के साथ अपने नित्यसिद्ध संबंध का अनुभव अटल रूप से रहता है। इस कारण उसका अंतःकरण रागद्वेषादि विकारों से सर्वथा मुक्त होता है। भगवान का साक्षात्कार होने पर ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं। साधानवावस्था में भी साधक ज्यों-ज्यों साधन में आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसमें राग द्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होने वाला होता है, वह मिटने वाला भी होता है। अतः जब साधनावस्था में ही विकार कम होने लगते हैं, तब सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धावस्था में भक्त में ये विकार नहीं रहते, पूर्णतया मिट जाते हैं। हर्ष और शोक- दोनों राग-द्वेष के ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है, उसके संयोग से और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके वियोग से ‘हर्ष’ होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति राग होता है, उसके वियोग या वियोग की आशंका से और जिसके प्रति द्वेष होता है, उसके संयोग या संयोग की आशंका से ‘शोक’ होता है। सिद्ध भक्त में राग-द्वेष का अत्यंतभाव होने से स्वतः एक साम्यावस्था निरंतर रहती है। इसलिए वह विकारों से सर्वथा रहित होता है। जैसे रात्रि के समय अंधकार में दीपक जलाने की कामना होती है; दीपक जलाने से हर्ष होता है, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले- ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होने से ये चारों बातें होती हैं। परंतु मध्याह्न का सूर्य तपता हो तो दीपक जलाने की कामना नहीं होती, दीपक जलाने से हर्ष नहीं होता, दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और (अंधेरा न होने से) प्रकाश के अभाव की चिन्ता भी नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रचलित भाषा में किसी की मृत्यु से मन में होने वाली व्यथा के लिए ‘शोक’ शब्द का प्रयोग किया जाता है; परंतु वहाँ ‘शोक’ शब्द का तात्पर्य अंतःकरण के दुःखरूप ‘विकार’ से है।
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