श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
प्रकृति और प्रकृति का कार्यमात्र भगवान का है। अतः भक्त एक भगवान के सिवाय किसी को भी अपना नहीं मानता। वह अपने लिए कभी कुछ नहीं करता। उसके द्वारा होने वाले मात्र कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए ही होते हैं। धन-संपत्ति, सुख-आराम, मान-बड़ाई आदि के लिए किए जाने वाले कर्म उसके द्वारा कभी होते ही नहीं। जिसके भीतर परमात्मतत्त्व की प्राप्ति की ही सच्ची लगन लगी है, वह साधक चाहे किसी भी मार्ग का क्यों न हो, भोग भोगने और संग्रह करने के उद्देश्य से वह कभी कोई नया कर्म आरंभ नहीं करता। ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’- भगवान में स्वाभाविक ही इतना महान् आकर्षण है कि भक्त स्वतः उनकी ओर खिंच जाता है, उनका प्रेमी हो जाता है। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ।।[2]
कारण कि नाशवान भोगों की ओर आकृष्ट होने से उसकी भगवान से दूरी दिखायी तो देती है, पर वास्तव में दूरी है नहीं; क्योंकि उन भोगों में भी तो सर्वव्यापी भगवान परिपूर्ण हैं। परंतु इंद्रियों के विषयों में अर्थात भोगों में ही आसक्ति होने के कारण उसको उनमें छिपे भगवान दिखायी नहीं देते। जब इन नाशवान भोगों की ओर उसका आकर्षण नहीं रहता, तब वह स्वतः ही भगवान की ओर खिंच जाता है। संसार में किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति न रहने से भक्त का एकमात्र भगवान में स्वतः प्रेम होता है। ऐसे अनन्यप्रेमी भक्त को भगवान ‘मद्भक्तः’ कहते हैं। जिस भक्त का भगवान में अनन्य प्रेम है, वह भगवान को प्रिय होता है। संबंध- सिद्ध भक्त के पाँच लक्षणों वाला चौथा प्रकरण आगे के श्लोक में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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