श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अर्थ- परंतु जो कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं। व्याख्या- [ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में भगवान ने अनन्य भक्त के लक्षणों में तीन विध्यात्मक (‘मत्कर्मकृत’, ‘मत्परमः’ और ‘मद्भक्तः’) और दो निषेधात्मक (‘संगवर्जितः’ और ‘निर्वैरः’) पद दिए थे। उन्हीं पदों का संकेत इस श्लोक में इस प्रकार किया गया है-
‘ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य’- अब यहाँ से निर्गुणोपासना की अपेक्षा सगुणोपासना की सुगमता बताने के लिए ‘तु’ पद से प्रकरण भेद करते हैं। यद्यपि ‘कर्माणि’ पद स्वयं ही बहुवचनान्त होने से संपूर्ण कर्मों का बोध कराता है, तथापि इसके साथ ‘सर्वाणि’ विशेषण देकर मन, वाणी, शरीर से होने वाले सभी लौकिक[1] एवं पारमार्थिक (जप-ध्यान-संबंधी) शास्त्रविहित कर्मों का समावेश किया गया है।[2] यहाँ ‘मयि संन्यस्य’ पदों से भगवान का आशय क्रियाओं का स्वरूप से त्याग करने का नहीं है। कारण कि एक तो स्वरूप से कर्मों का त्याग संभव नहीं।[3] दूसरे, यदि सगुणोपासक मोहपूर्वक शास्त्रविहित क्रियाओं का स्वरूप से त्याग करता है, तो उसका यह त्याग ‘तामस’ होगा[4] और यदि दुःखरूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से वह उनका त्याग करता है, तो यह त्याग ‘राजस’ होगा।[5] अतः इस रीति से त्याग करने पर कर्मों से संबंध नहीं छूटेगा। कर्म-बंधन से मुक्त होने के लिए यह आवश्यक है कि साधक कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करें; क्योंकि ममता, आसक्ति और फलेच्छा से किए गए कर्म ही बाँधने वाले होते हैं। यदि साधक का लक्ष्य भगवत्वप्राप्ति होता है, तो वह पदार्थों की इच्छा नहीं करता और अपने-आपको भगवान का समझने के कारण उसकी ममता शरीरादि से हटकर एक भगवान में ही हो जाती है। स्वयं भगवान के अर्पित होने से उसके संपूर्ण कर्म भी भगवदर्पित हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज