श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’- ‘देही’, ‘देहभृत्’ आदि पदों का अर्थ साधारणतया ‘देहधारी पुरुष’ लिया जाता है। प्रसंगानुसार इनका अर्थ ‘जीव’ और ‘आत्मा’ भी लिया जाता है। यहाँ ‘देहवद्भिः’[3] पद का अर्थ ‘देहाभीमानी मनुष्य’ लेना चाहिए; क्योंकि निर्गुण उपासकों के लिए इसी श्लोक में पूर्वार्ध में ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद आया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि वे निर्गुण-उपासना को श्रेष्ठ तो मानते हैं, परंतु उनका चित्त देहाभिमान के कारण निर्गुण तत्त्व में आविष्ट नहीं हुआ है। देहाभिमान के कारण ही उन्हें साधन में अधिक क्लेश होता है। ‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’- इस बाधा की ओर ध्यान दिलाने के लिए ही भगवान ने ‘देहवद्भिः’ पद दिया है। इस देहाभिमान को दूर करने के लिए ही (अर्जुन के पूच्छे बिना ही) भगवान ने तेरहवाँ और चौदहवाँ अध्याय कहा है। उनमें भी तेरहवें अध्याय का प्रथम श्लोक देहाभिमान मिटाने के लिए ही कहा गया है। ब्रह्म के निर्गुण-निराकार स्वरूप की प्राप्ति को यहाँ ‘अव्यक्ता गतिः’ कहा गया है। साधारण मनुष्यों की स्थिति व्यक्त अर्थात देह में होती है। इसलिए उन्हें अव्यक्त में स्थित होने में कठिनाई का अनुभव होता है। यदि साधक अपने को देह वाला न माने, तो उसकी अव्यक्त में सुगमता और शीघ्रतापूर्वक स्थिति हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 13:34
- ↑ गीता 5:24
- ↑ यहाँ ‘देह’ शब्द में ‘भूमनिन्दाप्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने। संसर्गेऽस्ति विवक्षायां भवन्ति मतुबादयः ।।’ –इन कारिका के अनुसार संसर्ग अर्थ में ‘तदस्यास्त्यस्मिन्नति मतुप्’ (5।2।94), इस पाणिनिसूत्र से ‘मतुप्’ प्रत्यय किया गया है। ‘देहवद्भिः’ पद का अर्थ है- वे मनुष्य, जिनका देह का साथ दृढ़तापूर्वक संबंध माना हुआ है। छठे अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में ‘ब्रह्मभूत’ होने पर सुखपूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति बतायी गयी है, जबकि यहाँ ‘देहभूत’ होने के कारण दुःखपूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति बतायी गयी है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज