श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव । अर्थ- मैं आपको वैसे ही किरीटधारी, गदाधारी और हाथ में चक्र लिए हुए देखना चाहता हूँ। इसलिए हे सहस्रबाहो! विश्वमूर्ते! आप उसी चतुर्भुज रूप से हो जाइए। व्याख्या- ‘किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव’- जिसमें आपने सिर पर दिव्य मुकुट तथा हाथों में गदा और चक्र धारण कर रखे हैं, उसी रूप को मैं देखना चाहता हूँ। ‘तथैव’ कहने का तात्पर्य है कि मेरे द्वारा ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्’ गीता 11:3 ऐसी इच्छा प्रकट करने से आपने विराटरूप दिखाया। अब मैं अपनी इच्छा बाकी क्यों रखूँ? अतः मैंने आपके विराटरूप में जैसा सौम्य चतुर्भुज रूप देखा है, वैसा-का-वैसा ही रूप मैं अब देखना चाहता हूँ- ‘इच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव’। ‘तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते’- पंद्रहवें और सत्रहवें श्लोक में जिस विराटरूप में चतुर्भुज विष्णुरूप को देखा था, उस विराटरूप का निषेध करने के लिए अर्जुन यहाँ ‘एव’ पद देते हैं। तात्पर्य यह है कि ‘तेन चतुर्भुजेन रूपेण’- ये पद तो चतुर्भुज रूप दिखाने के लिए आये हैं और ‘एव’ पद ‘विराटरूप के साथ नहीं’- ऐसा निषेध करने के लिए आया है तथा ‘भव’ पद हो जाइए- ऐसी प्रार्थना के लिए आया है। पूर्वश्लोक में ‘तदेव’ तथा यहाँ ‘तथैव’ और ‘तेनैव’- तीनों पदों का तात्पर्य है कि अर्जुन विश्वरूप से बहुत डर गए थे। इसलिए तीन बार ‘एव’ शब्द का प्रयोग करके भगवान से कहते हैं कि मैं आपका केवल विष्णुरूप ही देखना चाहता हूँ; विष्णुरूप के साथ विश्वरूप नहीं। अतः आप केवल चतुर्भुज रूप से प्रकट हो जाइए। ‘सहस्रबाहो’ संबोधन का यह भाव मालूम देता है कि हे हजारों हाथों वाले भगवन! आप चार हाथों वाले हो जाइए; और ‘विश्वमूर्ते’ संबोधन का यह भाव मालूम देता है कि हे अनेक रूपों वाले भगवन! आप एक रूप वाले हो जाइये। तात्पर्य है कि आप विश्वरूप का उपसंहार करके चतुर्भुज विष्णुरूप से हो जाइए। संबंध- इकतीसवें श्लोक में अर्जुन ने पूछा कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं, तो भगवान ने उत्तर दिया कि मैं काल हूँ और सबका संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। ऐसा सुनकर तथा अत्यंत विकराल रूप को देखकर अर्जुन को ऐसा लगा कि भगवान बड़े क्रोध में हैं। इसलिए अर्जुन भगवान से बार-बार प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करते हैं। अर्जुन की इस भावना को दूर करने के लिए भगवान कहते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इदमस्तु सन्निकृष्टे समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्। अदसस्तु विप्रकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयात् ।।
इस उक्ति के अनुसार ‘इदम्’ शब्द समीप का, ‘एतत्’ शब्द अत्यंत समीप का, ‘अदस्’ शब्द दूर का और ‘तत्’ शब्द परोक्ष का वाचक है। विश्वरूप में इन सबका प्रयोग हुआ है; जैसे- विश्वरूप नजदीक होने से अर्जुन ने अठारहवें-उन्नीसवें आदि श्लोकों में ‘इदम्’ शब्द का, भीष्म, द्रोण आदि विराटरूप भगवान के अत्यंत नजदीक होने से अर्थात विराटरूप का ही अंग होने से भगवान ने तैंतीसवें श्लोक में ‘एतत’ शब्द का, भगवान की दी हुई दिव्यदृष्टि से विराटरूप बहुत दूर तक दिखता था और उसमें देवता आदि भी दूर तक दिखते थे, इसलिए अर्जुन ने इक्कीसवें, छब्बीसवें और अट्ठाईसवें श्लोक में ‘अदस्’ शब्द का; और विराटरूप के पहले स्तर से देखा हुआ चतुर्भुज विष्णुरूप (विराटरूप के स्तर बदलने के कारण) नेत्रों के सामने न होने से अर्थात परोक्ष होने से अर्जुन ने ‘तत्’ शब्द का प्रयोग किया है।
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