श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति । अर्थ- आपकी महिमा और स्वरूप को न जानते हुए ‘मेरे सखा हैं’ ऐसा मानकर मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक (बिना सोचे समझे) ‘हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगी में, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय में अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदि के सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है, वह सब अप्रमेयस्वरूप आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ। व्याख्या- [जब अर्जुन विराट भगवान के अत्युग्र रूप को देखकर भयभीत होते हैं, तब वे भगवान के कृष्णरूप को भूल जाते हैं और पूछ बैठते हैं कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? परंतु जब उनको भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति आती है कि वे ये ही हैं, तब भगवान के प्रभाव आदि को देखकर उनको सखाभाव से किए हुए पुराने व्यवहार की याद आ जाती है और उसके लिए वे भगवान से क्षमा माँगते हैं।] ‘सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति’- जो बड़े आदमी होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष होते हैं, उनको साक्षात नाम से नहीं पुकारा जाता। उनके लिए तो ‘आप’, ‘महाराज’ आदि शब्दों का प्रयोग होता है। परंतु मैंने आपको कभी ‘हे कृष्ण’ कह दिया, कभी ‘हे यादव’ कह दिया और कभी ‘हे सखे’ कह दिया। इसका कारण क्या था? ‘अजानता महिमानं तवेदम्’[1] इसका कारण यह था कि मैंने आपकी ऐसी महिमा को और स्वरूप को जाना नहीं कि आप ऐसे विलक्षण हैं। आपके किसी एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड विराजमान हैं- ऐसा मैं पहले नहीं जानता था। आपके प्रभाव की तरफ मेरी दृष्टि ही नहीं गयी। मैंने कभी सोचा-समझा ही नहीं कि आप कौन हैं और कैसे हैं। यद्यपि अर्जुन भगवान के स्वरूप को, महिमा को, प्रभाव को पहले भी जानते थे, तभी तो उन्होंने एक अक्षौहिणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र भगवान को स्वीकार किया था; तथापि भगवान के शरीर के किसी एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड यथावकाश स्थित हैं- ऐसे प्रभाव को, स्वरूप को, महिमा को अर्जुन ने पहले नहीं जाना था। जब भगवान ने कृपा करके विश्वरूप दिखाया, तब उसको देखकर ही अर्जुन की दृष्टि भगवान के प्रभाव की तरफ गयी और वे भगवान को कुछ जानने लगे। उनका यह विचित्रभाव हो गया कि ‘कहाँ तो मैं और कहाँ ये देवों के देव! परंतु मैंने प्रमाद से अथवा प्रेम से हठपूर्वक, बिना सोचे-समझे, जो मन में आया, वह कह दिया- ‘मया प्रमादात्यप्रणयेन वापि।।’ बोलने में मैंने बिलकुल ही सावधानी नहीं बरती!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महिमानं तव इदम्’- इसमें आया ‘इदम्’ पद ‘महिमानम्’ का विशेषण नहीं है; क्योंकि ‘महिमान्’ पद पुल्लिंग में आया है और ‘इदम्’ पद नपुंसकलिंग में आया है। अतः यहाँ ‘इदम्’ का अर्थ ‘इदम्’ का अर्थ ‘स्वरूप’ लिया गया है। इस दृष्टि से ‘महिमानं तव इदम्’ का अर्थ हुआ- आपकी महिमा और स्वरूप।
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