श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् । अर्थ- रुद्रों में शंकर और यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं हूँ, वसुओं में पावक (अग्नि) और शिखर वाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ। व्याख्या- ‘रुद्राणां शंकरश्चास्मि’- हर, बहुरूप, त्र्यम्बक आदि ग्यारह रुद्रों में शम्भु अर्थात शंकर सबके अधिपति हैं। ये कल्याण प्रदान करने वाले और कल्याण स्वरूप हैं। इसलिए भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है। ‘वित्तेशो यक्षरक्षसाम्’- कुबेर यक्ष तथा राक्षसों के अधिपति हैं और इनको धानाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया गया है। सब यक्ष-राक्षसों में मुख्य होने से ये भगवान की विभूति हैं। ‘वसूनां पावकश्चास्मि’- धर, ध्रुव, सोम आदि आठ वसुओं में अनल अर्थात पावक (अग्नि) सबके अधिपति हैं। ये सब देवताओं को यज्ञ की हवि पहुँचाने वाले तथा भगवान के मुख हैं। इसलिए इनको भगवान ने अपनी विभूति बताया है। ‘मेरुः शिखरिणामहम्’- सोने, चाँदी, ताँबे आदि के शिखरों वाले जितने पर्वत हैं, उनमें सुमेरु पर्वत मुख्य है। यह सोने तथा रत्नों का भंडार है। इसलिए भगवान ने इसको अपनी विभूति बताया है। इस श्लोक में जो चार विभूतियाँ कही है, उनमें जो कुछ विशेषता- महत्ता दिखती है, वह विभूतियाँ के मूलरूप परमात्मा से ही आयी है। अतः इन विभूतियों में परमात्मा का ही चिन्तन होना चाहिए। |
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