श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वितीय अध्याय
उत्तर- यहाँ अर्जुन को ‘पार्थ’ नाम से सम्बोधित करके भगवान्, उनकी माता कुन्ती ने हस्तिनापुर से आते समय जो संदेश कहलाया था, उसकी पुनः स्मृति दिलाते हैं। उस समय कुन्ती ने भगवान् से कहा था- एतद्धनन्जयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः। अर्थात् ‘धनंजय अर्जुन से और सदा कमर कसे तैयार रहने वाले भीम से तुम यह बात कहना कि जिस कार्य के लिये क्षत्रिय-माता पुत्र उत्पन्न करती है, अब उसका समय सामने आ गया है।’ प्रश्न- यहाँ ‘युद्धम्’ के साथ ‘यदृच्छयोपपन्नम्’ विशेषण देकर उसे ‘अपावृतम्’, ‘स्वर्गद्वारम्’ कहने का क्या भाव है? उत्तर- ‘यदृच्छयोपपन्नम्’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि तुमने यह युद्ध जानबूझकर खड़ा नहीं किया है। तुम लोगों ने तो सन्धि करने की बहुत चेष्टा की, किंतु जब किसी प्रकार भी तुम्हारा धरोहर के रूप में रखा हुआ राज्य बिना युद्ध के वापस लौटा देने को दुर्योधन राजी नहीं हुआ- उसने स्पष्ट कह दिया कि सूई की नोंक टिके- इतनी जमीन भी मैं पाण्डवों को नहीं दूँगा[2][3], तब तुम लोगों को बाध्य होकर युद्ध का आयोजन करना पड़ा; अतः यह युद्ध तुम्हारे लिये ‘यदृच्छयोपपन्नम्’ अर्थात् बिना इच्छा किये अपने-आप प्राप्त है तथा ‘अपावृतम्’ ‘स्वर्गद्वारम्’ विशेषण देकर यह दिखलाया है कि यह खुला हुआ स्वर्ग का द्वार है, ऐसे धर्मयुद्ध में मरने वाला मनुष्य सीधा स्वर्ग में जाता है, उसके मार्ग में कोई भी रोक-टोक नहीं कर सकता। प्रश्न- ‘इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं’ इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि ऐसा धर्ममय युद्ध, जो कि अपने-आप कर्तव्यरूप से प्राप्त हुआ है और खुला हुआ स्वर्गद्वार है, हरेक क्षत्रिय को नहीं मिल सकता। यह तो किन्हीं बड़े भाग्यशाली क्षत्रियों को ही मिला करता है। अतएव तुम्हारा बड़ा ही सौभाग्य है जो कि तुम्हें ऐसा धर्ममय युद्ध अनायास ही मिल गया है, अतएव अब तुम्हें इससे हटना नहीं चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महा., उद्योग. 137। 9-10
- ↑ यावद्धि तीक्ष्णया सूच्या विध्येदग्रेण केशव। तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान्प्रति।।
- ↑ महा., उद्योग. 127। 25
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