|
चतुर्दश अध्याय
प्रश्न- ‘मोहम्’ पद का क्या अभिप्राय है और यहाँ तमोगुण के कार्यों में से केवल ‘मोह’ के ही प्रादुर्भाव और तिरोभाव में द्वेष और आकांक्षा का अभाव दिखलाने का क्या भाव है?
उत्तर- अन्तःकरण की जो मोहिनी वृत्ति है- जिससे मनुष्य को तन्द्रा, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं तथा शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में सत्त्वगुण के कार्य प्रकाश का अभाव-सा हो जाता है- उसका नाम ‘मोह’ है। इसके सिवा जो अज्ञान और प्रमाद आदि तमोगुण के कार्य हैं, उनका गुणातीत में अभाव हो जाता है; क्योंकि अज्ञान तो ज्ञान के पास आ नहीं सकता और प्रमाद बिना कर्ता के करे कौन? इसलिये यहाँ तमोगुण के कार्य में केवल ‘मोह’ के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जब गुणातीत पुरुष के शरीर में तन्द्रा, स्वप्न या निद्रा आदि तमोगुण की वृत्तियाँ व्याप्त होती हैं तो गुणातीत उनसे द्वेष नहीं करता; और जब वे निवृत्त हो जाती हैं, तब वह उनके पुनरागमन की इच्छा नहीं करता। दोनों अवस्थाओं में ही उसकी स्थिति सदा एक-सी रहती है।
|
|