श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
चतुर्दश अध्याय
श्रीभगवानुवाच
उत्तर- शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में आलस्य और जड़ता का अभाव होकर जो हलकापन, निर्मलता और चेतनता आ जाती है- उसका नाम ‘प्रकाश’ है। गुणातीत पुरुष के अंदर ज्ञान, शान्ति और आनन्द नित्य रहते हैं; उनका कभी अभाव होता ही नहीं। इसीलिये यहाँ सत्त्वगुण के कार्यों में केवल प्रकाश की बात कही है। अभिप्राय यह है कि सत्त्वगुण की प्रकाश-वृत्तिका उसके शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण में यदि अपने-आप प्रादुर्भाव हो जाता है तो वह उससे द्वेष नहीं करता और जब तिरोभाव हो जाता है तो पुनः उसके आगमन की इच्छा नहीं करता; उसके प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा ही उसकी एक-सी स्थिति रहती है। प्रश्न- ‘प्रवृत्तिम्’ पद का क्या अभिप्राय है? और यहाँ रजोगुण के कार्यों में से केवल ‘प्रवृत्ति’ के ही प्रादुर्भाव और तिरोभाव में द्वेष और इच्छा का अभाव दिखलाने का क्या भाव है? उत्तर- नाना प्रकार के कर्म करने की स्फुरणा का नाम प्रवृत्ति है। इसके सिवा जो काम, लोभ, स्पृहा और आसक्ति आदि रजोगुण के कार्य हैं- वे गुणातीत पुरुष में नहीं होते। कर्मों का आरम्भ गुणातीत के शरीर-इन्द्रियों द्वारा भी होता है, वह ‘प्रवृत्ति’ के अन्तर्गत ही आ जाता है; अतएव यहाँ रजोगुण के कार्यों में से केवल ‘प्रवृत्ति’ में ही राग-द्वेष का अभाव दिखलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जब गुणातीत पुरुष के मन में किसी कर्म का आरम्भ करने के लिये स्फुरण होती है या शरीरादि द्वारा उसका आरम्भ होता है तो वह उससे द्वेष नहीं करता और जब ऐसा नहीं होता, उस समय वह उसका चाहता भी नहीं। किसी भी स्फुरणा और क्रिया के प्रादुर्भाव और तिरोभाव में सदा ही उसकी एक-सी ही स्थिति रहती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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