श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उत्तर- उसे पुनः ‘ज्ञेय’ कहकर यह भाव दिखलाया गया है कि जिस ज्ञेय का बारहवें श्लोक में प्रकरण आरम्भ किया गया है उस परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही इस संसार में मनुष्य-शरीर का परम कर्तव्य है, इस संसार में जानने योग्य एकमात्र परमात्मा ही है। अतएव उसका तत्त्व जानने के लिये सभी को पूर्णरूप से उद्योग करना चाहिये, अपने अमूल्य जीवन को सांसारिक भोगों में लगाकर नष्ट नहीं कर डालना चाहिये। प्रश्न- उसे ‘ज्ञानगम्यम्’ कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘ज्ञेयम्’ पद से उसे जानना आवश्यक बतलाया गया। इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि उसे कैसे जानना चाहिये। इसलिये कहते हैं कि वह ज्ञानगम्य है अर्थात् पूर्वोक्त अमानित्वादि ज्ञान साधनों के द्वारा प्राप्त तत्त्वज्ञान से वह जाना जाता है। अतएव उन साधनों द्वारा तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके उस परमात्मा को जानना चाहिये। प्रश्न- पूर्व श्लोकों में उस परमात्मा को सर्वत्र व्याप्त बतलाया गया है, फिर यहाँ ‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’- इस कथन से केवल सबके हृदय में स्थित बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- वह परमात्मा सब जगह समान भाव से परिपूर्ण होते हुए भी, हृदय में उसकी विशेष अभिव्यक्ति है। जैसे सूर्य का प्रकाश सब जगह समान रूप से विस्तृत रहने पर भी दर्पण आदि में उसके प्रतिबिम्ब की विशेष अभिव्यक्ति होती है एवं सूर्यमुखी शीशे से उसका तेज प्रत्यक्ष प्रकट होकर अग्नि उत्पन्न कर देता है, अन्य पदार्थों में उस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं होती, उसी प्रकार हृदय उस परमात्मा की उपलब्धि का स्थान है। ज्ञानी के हृदय में तो वह प्रत्यक्ष ही प्रकट है। यही बात समझाने के लिये उसको सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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