श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्मतस: परमुच्यते ।
उत्तर- चन्द्रमा, सूर्य, विद्युत, तारे आदि जितनी भी बाह्य ज्योतियाँ हैं; बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ आदि जितनी आध्यात्मिक ज्योतियाँ हैं; तथा विभिन्न लोकों और वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता रूप जो देवज्योतियाँ हैं- उन सभी का प्रकाशक वह परमात्मा है। तथा उन सबमें जितनी प्रकाशनशक्ति है, वह भी उसी परब्रह्म परमात्मा का एक अंश मात्र है। इसीलिये वह समस्त ज्योतियों का भी ज्योति अर्थात् सबको प्रकाश प्रदान करने वाला, सबका प्रकाशक है। उसका प्रकाशक दूसरा कोई नहीं है। श्रुति में भी कहा है- ‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।’[1] अर्थात् ‘वहाँ न सूर्य प्रकाश करता है, न चन्द्रमा और न तारागण ही। न वहाँ यह बिजली प्रकाश करती है, फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या है। उसी के प्रकाशित होने से ये सब प्रकाशमान होते हैं और उसी के प्रकाश से यह समस्त जगत् प्रकाशित होता है।’ गीता में भी पंद्रहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में कहा गया है कि ‘जो तेज सूर्य में स्थित होकर समस्त जगत् को प्रकाशित करता है और जो तेज चन्द्रमा तथा अग्नि में स्थित है, उस तेज को तू मेरा ही तेज समझ।’ प्रश्न- यहाँ ‘तमः’ पद किसका वाचक है और उस परमात्मा को उससे ‘पर’ बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यहाँ ‘तमः’ पद अन्धकार और अज्ञान का वाचक है; और परमात्मा स्वयं ज्योति का ज्ञान स्वरूप है; अन्धकार और अज्ञान उसके निकट नहीं रह सकते, इसलिये उसे तमसे अत्यन्त परे- इनसे सर्वथा रहित- बतलाया गया है। प्रश्न- यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद किसका वाचक है और इसके प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- यहाँ ‘ज्ञानम्’ पद परमात्मा के स्वरूप का वाचक है। इसके प्रयोग का यह अभिप्राय है कि वह परमात्मा चेतन, बोधस्वरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठोपनिषद् 2। 2। 15; श्वेताश्वतरउ. 6। 14
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