श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
उत्तर- किसी भी प्राणी को मन, वाणी या शरीर से किसी प्रकार भी कभी कष्ट देना- मन से किसी का बुरा चाहना; वाणी से किसी को गाली देना, कठोर वचन कहना, किसी की निन्दा करना या अन्य किसी प्रकार के दुःखदायक और अहितकारक वचन कह देना; शरीर से किसी को मारना, कष्ट पहुँचाना या किसी प्रकार से भी हानि पहुँचाना आदि जो हिंसा के भाव हैं- इन सबके सर्वथा अभाव का नाम ‘अहिंसा’ है। जिस साधक में ‘अहिंसा’ का भाव पूर्णतया आ जाता है, उसका किसी में भी वैरभाव या द्वेष नहीं रहता; इसलिये न तो किसी भी प्राणी का उसके द्वारा कभी अहित ही होता है, न उसके द्वारा किसी को परिणाम में दुःख होता है और न वह किसी के लिये वस्तुतः भयदायक ही होता है। महर्षि पंतजलि ने तो यहाँ तक कहा है कि उसके पास रहने वाले हिंसक प्राणियों तक में परस्पर का स्वाभाविक वैरभाव भी नहीं रहता।[1] प्रश्न- ‘क्षान्तिः’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘क्षान्ति’ क्षमाभाव को कहते हैं। अपना अपराध करने वाले के लिये किसी प्रकार भी दण्ड देने का भाव मन में न रखना, उससे बदला लेने की अथवा अपराध के बदले उसे इस लोक या परलोक में दण्ड मिले- ऐसी इच्छा न रखना और उसके अपराधों को वस्तुतः अपराध ही न मानकर उन्हें सर्वथा भुला देना ‘क्षमाभाव’ है। दसवें अध्याय के चौथे श्लोक में इसकी कुछ विस्तार से व्याख्या की गयी है। प्रश्न- ‘आर्जवम्’ का क्या भाव है? उत्तर- मन, वाणी और शरीर की सरलता का नाम ‘आर्जव’ है। जिस साधक में यह भाव पूर्णरूप से आ जाता है, वह सबके साथ सरलता का व्यवहार करता है; उसमें कुटिलता का सर्वथा अभाव हो जाता है। अर्थात् उसके व्यवहार में दाव-पेंच, कपट या टेढ़ापन जरा भी नहीं रहता; वह बाहर और भीतर से सदा समान और सरल रहता है। प्रश्न- ‘आचार्योपासनम्’ का क्या भाव है? उत्तर- विद्या और सदुपदेश देने वाले गुरु का नाम ‘आचार्य’ है। ऐसे गुरु के पास रहकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर के द्वारा सब प्रकार से उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा करना, नमस्कार करना, उनकी आज्ञाओं का पालन करना और उनके अनुकूल आचरण करना आदि ‘आचार्योपासन’ यानी गुरु-सेवा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘अहिंसाप्रतिष्ठयां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।’ योगदर्शन 2। 35
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