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त्रयोदश अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारों का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का ‘ज्ञान’ के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं -
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह: ।। 7 ।।
श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणि को किसी भी प्रकार की न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्तिसहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्त:करण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह।। 7 ।।
प्रश्न- ‘अमानित्वम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- अपने को श्रेष्ठ, सम्मान्य, पूज्य या बहुत बड़ा समझना एवं मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा-पूजा आदि की इच्छा करना; अथवा बिना ही इच्छा किये इन सबके प्राप्त होने पर प्रसन्न होना- यह मानित्व है। इन सबका न होना ही ‘अमानित्व’ है। जिसमें ‘अमानित्व’ पूर्णरूप से आ जाता है- उसका मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा आदि की प्राप्ति में प्रसन्न होना तो दूर रहा; उलटी उसकी इन सबसे विरक्ति और उपरति हो जाती है।
प्रश्न- ‘अदम्भित्वम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर - मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और पूजा के लिये, धनादि के लोभ से या किसी को ठगने आदि के अभिप्राय से अपने को धर्मात्मा, दानशील, भगवद्भक्त, ज्ञानी या महात्मा विख्यात करना और बिना ही हुए धर्मपालन, उदारता, दातापन, भक्ति, योगसाधना, व्रत-उपवासादि का अथवा अन्य किसी भी प्रकार के गुण का ढोंग करना- दम्भित्व है। इसके सर्वथा अभाव का नाम ‘अदम्भित्व’ है। जिस साधक में ‘अदम्भित्व’ पूर्णरूप से आ जाता है, वह मान-बड़ाई की जरा भी इच्छा न रहने के कारण अपने सच्चे धार्मिक भावों को, सद्गुणों को अथवा भक्ति के आचरणों को भी दूसरों के सामने प्रकट करने में संकोच करता है- फिर बिना हुए गुणों को अपने में दिखलाना तो उसमें बन ही कैसे सकता है।
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