श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- जिसका मन और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ हो, उसे ‘यतात्मा’ कहते हैं। भगवान् के ज्ञानी भक्तों का मन और इन्द्रयों सहित शरीर सदा ही उनके वश में रहता है। वे कभी मन और इन्द्रियों के वश में नहीं हो सकते, इसी से उनमें किसी प्रकार के दुर्गुण और दुराचार की सम्भावना नहीं होती। यही भाव दिखलाने के लिये इसका प्रयोग किया गया है। प्रश्न- ‘दृढनिश्चयः’ पद किसका वाचक है? उत्तर- जिसने बुद्धि के द्वारा परमेश्वर के स्वरूप का भलीभाँति निश्चय कर लिया है; जिसे सर्वत्र भगवान् का प्रत्यक्ष अनुभव होता है तथा जिसकी बुद्धि गुण, कर्म और दुःख आदि के कारण परमात्मा के स्वरूप से कभी किसी प्रकार विचलित नहीं हो सकती, उसको ‘दृढ़निश्चय’ कहते हैं। प्रश्न- भगवान् में मन-बुद्धि का अर्पण करना क्या है? उत्तर- नित्य-निरन्तर मन से भगवान् के स्वरूप का चिन्तन और बुद्धि से उसका निश्चय करते-करते मन और बुद्धि का भगवान् के स्वरूप में सदा के लिये तन्मय हो जाना ही उनको ‘भगवान् में अर्पण करना’ है। प्रश्न- वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है- इस कथन का क्या तात्पर्य है? उत्तर- जिसका भगवान् में अहैतुक और अनन्य प्रेम है, जिसकी भगवान् के स्वरूप में अटल स्थिति है; जिसका कभी भगवान् से वियोग नहीं होता; जिसके मन-बुद्धि भगवान् के अर्पित हैं; भगवान् ही उसके जीवन, धन, प्राण एवं सर्वस्व हैं, जो भगवान् के ही हाथ की कठपुतली है- ऐसे ज्ञानी भक्त को भगवान् अपना प्रिय बतलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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