श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- यहाँ ‘सुख-दुःख’ हर्ष-शोक के वाचक नहीं है, किन्तु उनके हेतुओं के वाचक हैं तथा इनसे उत्पन्न होने वाले विकारों का नाम हर्ष-शोक है। अज्ञानी मनुष्यों की सुख में आसक्ति होती है, इस कारण सुख की प्राप्ति में उनको हर्ष होता है और दुख में उनका द्वेष होता है, इसलिये उसकी प्राप्ति में उनको शोक होता है; पर ज्ञानी भक्त का सुख और दुःख में समभाव हो जाने के कारण किसी भी अवस्था में उसके अन्तःकरण में हर्ष, शोक आदि विकार नहीं होते। श्रुति में भी कहा है- ‘हर्षशोकौ जहाति’[1], अर्थात् ‘ज्ञानी पुरुष हर्ष-शोकों को सर्वथा त्याग देता है।’ प्रारब्ध-भोग के अनुसार शरीर में रोग हो जाने पर उसको पीड़ा रूप दुःख का तो बोध होता है और शरीर स्वस्थ रहने से उसमें पीड़ा के अभाव का बोधरूप सुख भी होता है, किन्तु रागद्वेष का अभाव होने के कारण हर्ष और शोक उन्हें नहीं होते। इसी तरह किसी भी अनुकूल और प्रतिकूल पदार्थ या घटना के संयोग-वियोग में किसी प्रकार से भी उनको हर्ष-शोक नहीं होते। यही उनका सुख-दुःख में सम रहना है। प्रश्न- ‘क्षमावान्’ किसे कहते हैं और ज्ञानी भक्तों को ‘क्षमावान्’ क्यों बतलाया गया है? उत्तर- अपना अपकार करने वाले को किसी प्रकार का दण्ड देने की इच्छा न रखकर उसे अभय देने वाले को ‘क्षमावान्’ कहते हैं। भगवान् के ज्ञानी भक्तों में क्षमाभाव भी असीम रहता है। उनकी सबमें भगवद्बुद्धि हो जाने के कारण वे किसी भी घटना को वास्तव में किसी का अपराध ही नहीं समझते, अतएव वे अपना अपराध करने वाले को भी बदले में किसी प्रकार का दण्ड नहीं देना चाहते। यही भाव दिखलाने के लिये उनको ‘क्षमावान्’ बतलाया गया है। क्षमा की व्याख्या दसवें अध्याय के चौथे श्लोक में विस्तार से की गयी है। प्रश्न- यहाँ ‘योगी’ पद किसका वाचक है और उसका निरन्तर सन्तुष्ट रहना क्या है? उत्तर- भक्तियोग के द्वारा भगवान् को प्राप्त हुए ज्ञानी भक्त का वाचाक यहाँ ‘योगी’ पद है; ऐसा भक्त परमानन्द के अक्षय और अनन्त भण्डार श्री भगवान् को प्रत्यक्ष कर लेता है, इस कारण वह सदा ही सन्तुष्ट रहता है। उसे किसी समय, किसी भी अवस्था में, संसार की किसी भी वस्तु के अभाव में असन्तोष का अनुभव नहीं होता। वह पूर्णकाम हो जाता है; अतएव संसार किसी भी घटना से उसके सन्तोष का अभाव नहीं होता। यही उसका निरन्तर सन्तुष्ट रहना है। संसारी मनुष्यों को जो सन्तोष होता है, वह क्षणिक होता है; जिस कामना की पूर्ति से उनको सन्तोष होता है, उसकी कमी होते ही पुनः असन्तोष उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये वे सदा सन्तुष्ट नहीं रह सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठोपनिषद् 1। 2। 12
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