द्वादश अध्याय
सम्बन्ध- छठे श्लोक के आठवें तक अनन्य ध्यान का फल सहित वर्णन करके नवें से ग्यारहवें श्लोक तक एक प्रकार के साधन में असमर्थ होने पर दूसरा साधन बतलाते हुए अन्त में ‘सर्वकर्मफलत्याग’ रूप साधन का वर्णन किया गया, इससे यह शंका हो सकती है कि ‘कर्मफलत्याग’ रूप साधन पूर्वोक्त अन्य साधनों की अपेक्षा निम्न श्रेणी का होगा; अतः ऐसी शंका को हटाने के लिये कर्म फल के त्याग का महत्त्व अगले श्लोक में बतलाया जाता है-
रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। 12 ।।
मर्म को जानकर किये हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति होती है।। 12 ।।
प्रश्न- यहाँ ‘अभ्यास’ शब्द किसका वाचक है और ‘ज्ञान’ शब्द किसका? तथा अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- यहाँ ‘अभ्यास’ शब्द नवें श्लोक में बतलाये हुए अभ्यासयोग में से केवल अभ्यास मात्र का वाचक है अर्थात् सकामभाव से प्राणायाम मनोनिग्रह, स्तोत्र-पाठ, वेदाध्ययन, भगवन्नाम जप आदि के लिये बार-बार की जाने वाली ऐसी चेष्टओं का नाम यहाँ ‘अभ्यास’ है, जिनमें न तो विवेकज्ञान है, न ध्यान है और न कर्मफल का त्याग ही है। अभिप्राय यह है कि नवें श्लोक में जो योग यानी निष्कामभाव और विवेकज्ञान का फल भगवत्प्राप्ति की इच्छा है, वह इसमें नहीं है; क्योंकि ये दोनों जिसके अन्तर्गत हों, ऐसे अभ्यास के साथ ज्ञान की तुलना करना और उसकी अपेक्षा अभ्यासरहित ज्ञान को श्रेष्ठ बतलाना बन सकता है। इसी प्रकार यहाँ ‘ज्ञान’ शब्द भी सत्संग और शास्त्र से उत्पन्न उस विवेक-ज्ञान का वाचक है जिसके द्वारा मनुष्य आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को तथा भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला आदि को समझता है एवं संसार और भोगों की अनित्यता आदि अन्य आध्यात्मिक बातों को भी समझता है परन्तु जिसके साथ न तो अभ्यास है, न ध्यान है और न कर्मफल की इच्छा का त्याग ही है।
क्योंकि ये सब जिसके अन्तर्गत हों उस ज्ञान के साथ अभ्यास, ध्यान और कर्मफल के त्याग का तुलनात्मक विवेचन करना और उसकी अपेक्षा ध्यान को तथा कर्मफल के त्याग को श्रेष्ठ बतलाना नहीं बन सकता। उपर्युक्त अभ्यास और ज्ञान दोनों ही अपने-अपने स्थान पर भगवत्प्राप्ति में सहायक हैं; श्रद्धा-भक्ति और निष्कामभाव के सम्बन्ध से दोनों के द्वारा ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। तथापि दोनों की परस्पर तुलना की जाने पर अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। विवेकहीन अभ्यास भगवत्प्राप्ति में उतना सहायक नहीं हो सकता, जितना कि अभ्यासहीन विवेकज्ञान सहायक हो सकता है; क्योंकि वह भगवत्प्राप्ति की इच्छा हेतु है। यही बात दिखलाने के लिये यहाँ अभ्यास की अपेक्षा ज्ञान को श्रेष्ठ बतलाया।
|