श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- समस्त कर्मों को भगवान् में अर्पण करना, भगवान् के लिये समस्त कर्म करना और सब कर्मों के फल का त्याग करना- ये तीनों ही ‘कर्मयोग’ हैं; और तीनों का ही फल परमेश्वर की प्राप्ति है, अतएव फल में किसी प्रकार का भेद नहीं है। केवल साधकों की भावना और उनके साधन की प्रणाली के भेद से इनका भेद किया गया है। समस्त कर्मों को भगवान् में अर्पण करना और भगवान् के लिये समस्त कर्म करना- इन दोनों में तो भक्ति की प्रधानता है; सर्वकर्मफलत्याग में केवल फल-त्याग की प्रधानता है। यही इनका मुख्य भेद है। ‘सर्वकर्म’ भगवान् के अर्पण कर देने वाला पुरुष समझता है कि मैं भगवान् के हाथ की कठपुतली हूँ, मुझमें कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं है; मेरे मन, बुद्धि और इन्द्रियादि जो कुछ है- सब भगवान् के हैं और भगवान् ही इनसे अपने इच्छानुसार समस्त कर्म करवाते हैं, उन कर्मों से और उनके फल से मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार के भाव से उस साधक का कर्मों में और उनके फल में किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष नहीं रहता; उसे जो कुछ भी प्रारब्धानुसार सुख-दुःखों के भोग प्राप्त होते हैं, उन सबको वह भगवान् का प्रसाद समझकर सदा ही प्रसन्न रहता है। अतएव उसका सब में समभाव होकर उसे शीघ्र ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। भगवदर्थ कर्म करने वाला मनुष्य पूर्वोक्त साधक की भाँति यह नहीं समझता कि ‘मैं कुछ नहीं करता हूँ और भगवान् ही मुझसे सब कुछ करवा लेते हैं। वह यह समझता है कि भगवान् मेरे परम पूज्य, प्रेमी और परम सुहृद् हैं; उनकी सेवा करना और उनकी आज्ञा का पालन करना ही मेरा परम कर्तव्य है। अतएव वह भगवान् को समस्त जगत में व्याप्त समझकर उनकी सेवा के उद्देश्य से शास्त्र द्वारा प्राप्त उनकी आज्ञा के अनुसार यज्ञ, दान और तप, वर्णाश्रम के अनुकूल आजीविका और शरीर निर्वाह के समस्त कर्म तथा भगवान् की पूजा-सेवादि के कर्मों में लगा रहता है। उसकी प्रत्येक क्रिया भगवान् की आज्ञानुसार और भगवान् की ही सेवा के उद्देश्य से होती है[1], अतः उन समस्त क्रियाओं और उनके फलों में उसकी आसक्ति और कामना का अभाव होकर उसे शीघ्र ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। केवल ‘सर्वकर्मों के फल का त्याग’ करने वाला पुरुष न तो यह समझता है कि मुझसे भगवान् कर्म करवाते हैं और न यही समझता है कि मैं भगवान् के लिये समस्त कर्म करता हूँ। वह यह समझता है कि कर्म करने में ही मनुष्य का अधिकार है उसके फल में नहीं,[2] अतः किसी प्रकार का फल न चाहकर यज्ञ, दान, तप, सेवा तथा वर्णाश्रम के अनुसार जीविका और शरीर निर्वाह के खान-पान आदि समस्त शास्त्रविहित कर्मों को करना ही मेरा कर्तव्य है। अतएव वह समस्त कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के भोगों में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देता है[3]; इससे उसमें राग, द्वेष का सर्वथा अभाव होकर उसे शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार तीनों के ही साधन का भगवत्प्राप्ति रूप एक फल होने पर भी साधकों की मान्यता और साधनप्रणाली में भेद होने के कारण तीन तरह के साधन अलग-अलग बतलाये गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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