श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
उत्तर- छठे, सातवें और आठवें श्लोकों में अनन्य भक्तियोग के साधकों का वर्णन है; वैसे अनन्य प्रेमी भक्तों का संसार के भोगों में प्रेम न रहने के कारण उनके मन, बुद्धि और स्वाभाविक ही संसार से विरक्त रहकर भगवान् में लगे रहते हैं। इस कारण उन श्लोकों में ‘यतात्मवान्’ होने के लिये नहीं कहा गया। नवें श्लोक में ‘अभ्यासयोग’ बतलाया गया है और भगवान् में मन-बुद्धि लगाने के लिये जितने भी साधन हैं, सभी अभ्यासयोग के अन्तर्गत आ जाते हैं- इस कारण से वहाँ ‘यतात्मवान्’ हाने के लिये अलग कहने की आवश्यकता नहीं है। और दसवें श्लोक में भक्तियुक्त कर्मयोग का वर्णन है, उसमें भगवान् का आश्रय है और साधक के समस्त कर्म भी भगवदर्थ ही होते हैं। अतएव उसमें भी ‘यतात्मवान्’ होने के लिये अलग कहना प्रयोजनीय नहीं है। परन्तु इस श्लोक में जो ‘सर्वकर्मफलत्याग’ रूप कर्मयोग का साधन बतलाया गया है, इसमें मन-बुद्धि को वश में रखे बिना काम नहीं चल सकता; क्योंकि वर्णाश्रमोचित समस्त व्यावहारिक कर्म करते हुए यदि मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ वश में न हों तो उनकी भोगों में ममता, आसक्ति और कामना हो जाना बहुत ही सहज है और ऐसा होने पर ‘सर्वकर्मफलत्याग’ रूप साधन बन नहीं सकता। इसलिये यहाँ ‘यतात्मवान्’ पद का प्रयोग करके मन-बुद्धि आदि को वश में रखने के लिये विशेष सावाधान किया गया है। प्रश्न- ‘सर्वकर्म’ शब्द यहाँ किन कर्मों का वाचक है और उनका फलत्याग करना क्या है? उत्तर- यज्ञ, दान, तप, सेवा और वर्णाश्रमानुसार जीविका तथा शरीरनिर्वाह के लिये किये जाने वाले शास्त्रसम्मत सभी कर्मों का वाचक यहाँ ‘सर्वकर्म’ शब्द है; उन कर्मों का यथायोग्य करते हुए, इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्तिरूप जो उनका फल है- उसमें ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना ही सर्वकर्मों का फलत्याग करना है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि झूठ, कपट, व्यभिचार, हिंसा और चोरी आदि निषिद्ध कर्म ‘सर्वकर्म’ में सम्मिलित नहीं हैं। भोगों में आसक्ति और उनकी कामना होने के कारण ही ऐसे पापकर्म होते हैं और उनके फलस्वरूप मनुष्य का सब तरह से पतन हो जाता है। इसीलिये उनका स्वरूप से ही सर्वथा त्याग कर देना बतलाया गया है और जब वैसे कर्मों का ही सर्वथा निषेध है, तब उनके फलत्याग का तो प्रसंग ही कैसे आ सकता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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