श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित: ।
उत्तर- इस वाक्य से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि वास्तव में उपर्युक्त प्रकार से भक्तियुक्त कर्मयोग का साधन करना तुम्हारे लिये कठिन नहीं, सुगम है। तथापि यदि तुम उसे कठिन मानते हो तो मैं तुम्हें अब एक अन्य प्रकार का साधन बतलाता हूँ। प्रश्न- ‘यतात्मवान्’ किसको कहते हैं और अर्जुन को ‘यतात्मवान्’ होने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘आत्मा’ शब्द मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर का वाचक है; अतः जिसने मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सहित शरीर पर विजय प्राप्त कर ली हो, उसे ‘यतात्मवान्’ कहते हैं। मन और इन्द्रिय आदि यदि वश में नहीं होते तो वे मनुष्य को बलात् भोगों में फँसा देते हैं और ऐसा होने पर समस्त कर्मों के फलरूप भोगों की कामना और आसक्ति का त्याग नहीं हो सकता। अतएव ‘सर्वकर्मफलत्याग’ के साधन में आत्मसंयम की परम आवश्यकता समझकर यहाँ अर्जुन को ‘यतात्मवान्’ बनने के लिये कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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