श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
उत्तर- भगवान् अर्जुन को निमित्त बनाकर समस्त जगत् के हितार्थ उपदेश कर रहे हैं। संसार में सब साधकों की प्रकृति एक-सी नहीं होती, इस कारण सबके लिये एक साधन उपयोगी नहीं हो सकता। विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार के साधन ही उपयुक्त होते हैं। अतएव भगवान् इस श्लोक में कहते हैं कि यदि तुम उपर्युक्त प्रकार से मुझमें मन और बुद्धि के स्थिर स्थापन करने में अपने को असमर्थ समझते हो, तो तुम्हें अभ्यासयोग के द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा करनी चाहिये। प्रश्न- अभ्यासयोग किसे कहते हैं और उसके द्वारा भगवत्प्राप्ति के लिये इच्छा करना क्या है? उत्तर- भगवान् की प्राप्ति के लिये भगवान् में नाना प्रकार की युक्तियों से चित्त को स्थापन करने का जो बार-बार प्रयत्न किया जाता है, उसे ‘अभ्यासयोग’ कहते हैं। भगवान् के जिस नाम, रूप, गुण और लीला आदि में साधक की श्रद्धा और प्रेम हो- उसी में केवल भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से ही बार-बार मन लगाने के लिये प्रयत्न करना अभ्यासयोग के द्वारा भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा करना है। भगवान् में मन लगाने के साधन शास्त्रों में अनेकों प्रकार के बतलाये गये हैं, उनमें से निम्नलिखित कतिपय साधन सर्वसाधारण के लिये विशेष उपयोगी प्रतीत होते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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