श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
द्वादश अध्याय
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
उत्तर- जो सम्पूर्ण चराचर संसार को व्याप्त करके सबके हृदय में स्थित हैं और जो दयालुता, सर्वज्ञता, सुशीलता तथा सुहृदता आदि अनन्त गुणों के समुद्र हैं- उन परम दिव्य, प्रेममय और आनन्दमय, सर्वशक्तिमान्, सर्वोत्तम, शरण लेने के योग्य परमेश्वर के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व तथा रहस्य को भलीभाँति समझकर उनका सदासर्वदा और सर्वत्र अटल निश्चय रखना- यही बुद्धि को भगवान् में लगाना है। तथा इस प्रकार अपने परम प्रमास्पद पुरुषोत्तम भगवान् के अतिरिक्त अन्य समस्त विषयों से आसक्ति को सर्वथा हटाकर मन को केवल उन्हीं में तन्मय कर देना और नित्य-निरन्तर उपर्युक्त प्रकार से उनका चिन्तन करते रहना- यही मन को भगवान् में लगाना है। इस प्रकार जो अपने मन-बुद्धि को भगवान् में लगा देता है, वह शीघ्र ही भगवान् को प्राप्त हो जाता है। प्रश्न- भगवान् में मन-बुद्धि लगाने पर यदि मनुष्य को निश्चय ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर सब लोग भगवान् में मन-बुद्धि क्यों नहीं लगाते? उत्तर- गुण, प्रभाव और लीला तत्त्व और रहस्य को न जानने के कारण भगवान् में श्रद्धा-प्रेम नहीं होता और अज्ञानजनित आसक्ति के कारण सांसारिक विषयों का चिन्तन होता रहता है। संसार में अधिकांश लोगों की यही स्थिति है, इसी से सब लोग भगवान् में मन-बुद्धि नहीं लगाते। प्रश्न- जिस अज्ञानजनित आसक्ति से लोगों में सांसारिक भोगों के चिन्तन की बुरी आदत पड़ रही है, उसके छूटने का क्या उपाय है? उत्तर- भगवान् के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व और रहस्य को जानने और मानने से यह आदत छूट सकती है। प्रश्न- भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला के तत्त्व और रहस्य का ज्ञान कैसे हो सकता है? उत्तर- भगवान् के गुण, प्रभाव और लीला के तत्त्व और रहस्य को जानने वाले महापुरुषों का संग, उनके गुण और आचरणों का अनुकरण तथा भोग, आलस्य और प्रमाद को छोड़कर उनके बतलाये हुए मार्ग पर विश्वासपूर्वक तत्परता के साथ अनुसरण करने से उनका ज्ञान हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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