श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
उत्तर- जो रूप पहले कभी न देखा हुआ हो उस आश्चर्यजनक रूप को ‘अदृष्टपूर्व’ कहते हैं। अतएव यहाँ अर्जुन के कथन का भाव यह है कि आपके इस अलौकिक रूप में जब आपके गुण, प्रभाव और ऐश्वर्य की ओर देखकर विचार करता हूँ तब तो मुझे बड़ा भारी हर्ष होता है कि ‘अहो! मैं बड़ा ही सौभाग्यशाली हूँ, जो साक्षात् परमेश्वर की मुझ तुच्छ पर इतनी अनन्त दया और ऐसा अनोखा प्रेम है कि जिससे कृपा करके मुझको अपना यह अलौकिक रूप दिखला रहे हैं, परंतु इसी के साथ जब आपकी भयावनी विकराल मूर्ति की ओर मेरी दृष्टि जाती है तब मेरा मन भय से काँप उठता है और मैं अत्यन्त व्याकुल हो जाता हूँ। अर्जुन का यह कथन सहेतुक है। अभिप्राय यह है कि इसीलिये मैं आपसे विनीत प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने इस रूप को शीघ्र संवरण कर लीजिये। प्रश्न- ‘एव’ पद के सहित ‘तत्’ पद का प्रयोग करके देवरूप दिखलाने के लिये प्रार्थना करने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘तत्’ पद परोक्षवाची है। साथ ही यह उस वस्तु का भी वाचक है, जो पहले देखी हुई हो किंतु अब प्रत्यक्ष हो; तथा ‘एव’ पद उससे भिन्न रूप का निराकरण करता है। अतएव अर्जुन के कथन का अभिप्राय यह होता है है कि आपका जो वैकुण्ठधाम में निवास करने वाला देवरूप अर्थात् विष्णुरूप है, मुझको उसी चतुर्भुजरूप के दर्शन करवाइये। केवल ‘तत्’ का प्रयोग होने से तो यह बात भी मानी जा सकती थी कि भगवान् का जो मनुष्यावतार का रूप है, उसी को दिखलाने के लिये अर्जुन प्रार्थना कर रहे हैं; किन्तु रूप के साथ ‘देव’ पद रहने से वह स्पष्ट ही मानुषरूप से भिन्न देवसम्बन्धी रूप का वाचक हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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