द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- इस प्रकार ‘सत्’ तत्त्व की व्याख्या हो जाने के अनन्तर पूर्वोक्त ‘असत्’ वस्तु क्या है, इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।। 18 ।।
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर ।। 18 ।।
प्रश्न- ‘इमे’ के सहित ‘देहाः’ पद यहाँ किनका वाचक है? और उन सबको ‘अन्तवन्तः’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘इमे’ के सहित ‘देहाः’ पद यहाँ समस्त शरीरों का वाचक है और असत् की व्याख्या करने के लिये उनको ‘अन्तवन्तः’ कहा है। अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित समस्त शरीर नाशवान् हैं। जैसे स्वप्न के शरीर और समस्त जगत् बिना हुए ही प्रतीत होते हैं, वैसे ही ये समस्त शरीर भी बिना हुए ही अज्ञान-से प्रतीत हो रहे हैं; वास्तव में इनकी सत्ता नहीं है। इसलिये इनका नाश होना अवश्यम्भावी है, अतएव इनके लिये शोक करना व्यर्थ है।
प्रश्न- यहाँ ‘देहाः’ पद में बहुवचन का और ‘शरीरिणः’ पद में एकवचन का प्रयोग किसलिये किया गया है?
उत्तर- इस प्रयोग से भगवान् ने यह दिखलाया है कि समस्त शरीरों में एक ही आत्मा है। शरीरों के भेद से अज्ञान के कारण आत्मा में भेद प्रतीत होता है, वास्तव में भेद नहीं है।
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