द्वितीय अध्याय
सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व के लिये यह कहा गया है कि ‘उसका अभाव नहीं है’, वह ‘सत्’ तत्त्व क्या है - इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। 17 ।।
नाशरहित तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है ।। 17।।
प्रश्न- ‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम्’ पद यहाँ किसका वाचक है और वह किसके द्वारा व्याप्त है तथा जिससे व्याप्त है उसे अविनाशी कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- शरीर, इन्द्रिय, मन, भोगों की सामग्री और भोग-स्थान आदि समस्त जडवर्ग का वाचक यहाँ ‘सर्वम्’ के सहित ‘इदम्’ पद है। वह सम्पूर्ण जडवर्ग चेतन परमात्मतत्त्व से व्याप्त है। उस परमात्मतत्त्व को अविनाशी कहकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि पूर्वश्लोक में जिस ‘सत्’ तत्त्व का मैंने लक्षण किया है तथा तत्त्व-ज्ञानियों ने जिस तत्त्व को ‘सत्’ निश्चित किया है, वह परमात्मा ही अविनाशी नाम से कहा गया है।
प्रश्न- इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर- इससे भगवान् ने यह दिखलाया है कि आकाश से बादल के सदृश इस परमात्मतत्त्व के द्वारा अन्य सब जडवर्ग व्याप्त होने के कारण उनमें से कोई भी इस परमात्मतत्त्व का नाश नहीं कर सकता; अतएव सदा-सर्वदा विद्यमान रहने वाला होने से यही एकमात्र ‘सत्’ तत्त्व है।
|