श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
अनादिमध्यान्तमनत्नवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
उत्तर- वहाँ अर्जुन ने भगवान् के विराट् रूप को असीम बतलाया है और यहाँ उसे उत्पत्ति आदि छः विकारों से रहित नित्य बतलाया है। इसलिये पुनरुक्ति का दोष नहीं है। इसका अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये कि ‘आदि’ शब्द उत्पत्ति का, ‘मध्य’ उत्पत्ति और विनाश के बीच में होने वाले स्थिति, वृद्धि, क्षय और परिणाम- इन चारों भावविकारों का और ‘अन्त’ शब्द विनाशरूप विकार का वाचक है। ये तीनों जिसमें न हों, उसे ‘अनादिमध्यान्त’ कहते हैं। अतएव यहाँ अर्जुन के इस कथन का यह भाव है कि मैं आपको उत्पत्ति आदि छः भावविकारों से सर्वथा रहित देख रहा हूँ। प्रश्न- ‘अनन्तवीर्यम्’ का क्या भाव है? उत्तर- ‘वीर्य’ शब्द सामर्थ्य, बल, तेज और शक्ति आदि का वाचक है। जिसके वीर्य का अन्त न हो, उसे ‘अनन्तवीर्य’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन ने भगवान् को ‘अनन्तवीर्य’ कहकर यह भाव दिखलाया है कि आपके बल, वीर्य, सामर्थ्य और तेज की कोई भी सीमा नहीं है। प्रश्न- ‘अनन्तबाहुम्’ का क्या भाव है? उत्तर- जिसकी भुजाओं का पार न हो, उसे ‘अनन्तबाहु’ कहते हैं। इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपके इस विराट् रूप में मैं जिस ओर देखता हूँ उसी ओर मुझे अगणित भुजाएँ दिखलायी दे रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज