श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
उत्तर- जिसे जानने योग्य परमतत्त्व को मुमुक्षु पुरुष जानने की इच्छा करते हैं, जिसके जानने के लिये जिज्ञासु साधन नाना प्रकार के साधन करते हैं, आठवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिस परम अक्षर को ब्रह्म बतलाया गया है- उसी परम तत्त्वस्वरूप सच्चिदानन्दघन निर्णुण निराकार परब्रह्म परमात्मा का वाचक यहाँ ‘वेदितव्यम्’ और ‘परमम्’ विशेषणों के सहित ‘अक्षरम्’ पद है; और इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आपका विराट् रूप देखकर मुझे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि वह परब्रह्म परमात्मा निर्गुण ब्रह्म भी आप ही हैं। प्रश्न- ‘निधानम्’ पद का क्या अर्थ है और भगवान् को इस जगत् का परम निधान बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिस स्थान में कोई वस्तु रखी जाय,वह उस वस्तु का निधान अथवा आधार (आश्रय) कहलाता है। यहाँ अर्जुन ने भगवान् को इस जगत् का निधान कहकर यह भाव दिखलाया है कि कारण और कार्य के सहित यह सम्पूर्ण जगत् आप में ही स्थित है, आपने ही इसे धारण कर रखा है; अतएव आप ही इसके आश्रय हैं। प्रश्न- ‘शाश्वतर्ध’ किसका वाचक है और भगवान् को उसके ‘गोप्ता’ बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जो सदा से चला आता हो और सदा रहने वाला हो, उस सनातन (वैदिक) धर्म को ‘शाश्वतधर्म’ कहते हैं। भगवान् बार-बार अवतार लेकर उसी धर्म की रक्षा करते हैं, इसलिये भगवान् को अर्जुन ने ‘शाश्वतधर्मगोप्ता’ कहा है। प्रश्न- ‘अव्यय’ और ‘सनातन’ विशेषणों के सहित ‘पुरुष’ शब्द के प्रयोग का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जिसका कभी नाश न हो, उसे ‘अव्यय’ कहते हैं; तथा जो सदा से हो और सदा एक रस बना रहे, उसे ‘सनातन’ कहते हैं। इन दोनों विशेषणों के सहित ‘पुरुष’ शब्द का प्रयोग करके अर्जुन ने यह बतलाया है कि जिनका कभी नाश नहीं होता-ऐसे समस्त जगत् के हर्ता, कर्ता, सर्वशक्तिमान्, सम्पूर्ण विकारों से रहित, सनातन परम पुरुष साक्षात् परमेश्वर आप ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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