श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
एकादश अध्याय
उत्तर- यहाँ के प्रसंग को पढ़कर यह नहीं माना जा सकता कि ज्ञान के द्वारा अर्जुन का इस दृश्यजगत् को भगवद् रूप समझ लेना ही ‘विश्वरूपदर्शन’ था और वह ज्ञान ही ‘दिव्य दृष्टि’ थी। समस्त विश्व को ज्ञान के द्वारा भगवान् के एक अंश में देखने के लिये तो अर्जुन को दसवें अध्याय के अन्त में ही कहा जा चुका था और उसको उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। इस प्रकार स्वीकार कर लेने के बाद भी अर्जुन जब भगवान् से बल, वीर्य, शक्ति और तेज से युक्त उनके ईश्वरीय स्वरूप का प्रत्यक्ष देखने की इच्छा करते हैं और भगवान् भी अपने श्रीकृष्णरूप के अन्दर ही एक ही जगह समस्त विश्व को दिखला रहे हैं, तब यह कैसे माना जा सकता है कि वह ज्ञान द्वारा समझा जाने वाला रूप था? इसके अतिरिक्त भगवान् ने जो विश्वरूप का वर्णन किया है, उससे भी यह सिद्ध होता है कि अर्जुन भगवान् के जिस रूप में समस्त ब्रह्माण्ड के दृश्य और भविष्य में होने वाली युद्ध सम्बन्धी घटनाओं को और उनके परिणाम को देख रहे थे, वह रूप उनके सामने था; इससे यही मानना पड़ता है कि जिस विश्व में अर्जुन अपने को खड़े देख रहे थे, वह विश्व भगवान् के शरीर में दिखलायी देने वाले विश्व से भिन्न था। ऐसा न होता तो उस विराट् रूप के द्वारा दृश्य जगत् के स्वर्गलोक से लेकर पृथ्वी तक के आकाश को और सब दिशाओं को व्याप्त देखना-सम्भव ही न था। भगवान् के उस भयानक रूप को देखकर अर्जुन को आश्चर्य, मोह, भय, सन्ताप, और दिग्भ्रमादि भी हो रहे थे; इससे भी यही बात सिद्ध होती है कि भगवान् ने उपदेश देकर ज्ञान के द्वारा इस दृश्यजगत् को अपना स्वरूप समझा दिया हो, ऐसी बात नहीं थी। ऐसा होता तो अर्जुन को भय, सन्ताप, मोह और दिग्भ्रमादि होने का कोई कारण नहीं रह जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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