दशम अध्याय
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्।। 38 ।।
मैं दमन करने वालों का दण्ड अर्थात दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।। 38 ।।
प्रश्न- दमन करने वालों के दण्ड को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- दण्ड (दमन करने की शक्ति) धर्म का त्याग करके अधर्म में प्रवृत्त उच्छृंखल मनुष्यों को पापाचार से रोक कर सत्कर्म में प्रवृत्त करता है। मनुष्यों के मन और इन्द्रिय आदि भी इस दमन-शक्ति के द्वारा ही वश में होकर भगवान् की प्राप्ति में सहायक बन सकते हैं। दमन-शक्ति से समस्त प्राणी अपने-अपने अधिकार का पालन करते हैं। इसलिये जो भी देवता, राजा और शासक आदि न्यायपूर्वक दमन करने वाले हैं, उन सबकी उस दमन-शक्ति को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- विजय चाहने वालों की नीति को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ‘नीति’ शब्द यहाँ न्याय का वाचक है। न्याय से ही मनुष्य की सच्ची विजय होती है। जिस राज्य में नीति नहीं रहती, अनीति का बर्ताव होने लगता है वह राज्य भी शीघ्र नष्ट हो जाता है अतएव नीति अर्थात् न्याय विजय का प्रधान उपाय है। इसलिये विजय चाहने वालों की नीति को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- मौन को अपना स्वरूप बतलाने का क्या भाव है?
उत्तर- जितने भी गुप्त रखने योग्य भाव हैं, वे मौन से (न बोलने से) ही गुप्त रह सकते हैं। बोलना बंद किये बिना उनका गुप्त रखा जाना कठिन है। इस प्रकार गोपनीय भावों के रक्षक मौन की प्रधानता होने से मौन को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- यहाँ ‘ज्ञानवताम्’ पद किन ज्ञानियों का वाचक है? और उनके ज्ञान को अपना स्वरूप बतलाने का क्या भाव है?
उत्तर- ‘ज्ञानवताम’ पद परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप का साक्षात् कर लेने वाले यथार्थ ज्ञानियों का वाचक है। उनका ज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है। इसलिये उसको भगवान् ने परमात्मा का स्वरूप बतलाया है। तेरहवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक में भी भगवान् ने अपने को ज्ञानस्वरूप बतलाया है।
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