श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनजय: ।
उत्तर- इस कथन से भगवान् ने अवतार और अवतारी की एकता दिखलायी है। कहने का भाव यह है कि मैं अजन्मा, अविनाशी, सब भूतों का महेश्वर, सर्वशक्तिमान्, पूर्णब्रह्म पुरुषोत्तम ही यहाँ वसुदेव के पुत्र के रूप में लीला से प्रकट हुआ हूँ।[1] अतएव जो मनुष्य मुझे साधारण मनुष्य समझते हैं वे भारी भूल करते हैं। प्रश्न- पाण्डवों में अर्जुन को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है, क्योंकि पाँचों पाण्डवों में तो धर्मराज युधिष्ठिर ही सबसे बड़े तथा भगवान् के भक्त और धर्मात्मा थे? उत्तर- निःसन्देह युधिष्ठिर पाण्डवों में सबसे बड़े, धर्मात्मा और भगवान् के परम भक्त थे, तो भी अर्जुन ही सब पाण्डवों में श्रेष्ठ माने गये हैं। इसका कारण यह है कि नर-नारायण-अवतार में अर्जुन नररूप में भगवान् के साथ रह चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे भगवान् के परम प्रिय सखा और उनके अनन्य प्रेमी भक्त हैं। इसलिये अर्जुन को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।[2] प्रश्न- मुनियों में व्यास को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवान् के स्वरूप का और वेदाहि शास्त्रों का मनन करने वाले को ‘मुनि’ कहते हैं। भगवान् वेदव्यास समस्त वेदों का भलीभाँति चिन्तन करने उनका विभाग करने वाले, महाभारत, पुराण आदि अनेक शास्त्रों के रचयिता, भगवान् के अंशावतार और सर्वसद्गुण सम्पन्न हैं। अतएव मुनिमण्डल में उनकी प्रधानता होने के कारण भगवान् ने उन्हें अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- कवियों में शुक्राचार्य को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जो पण्डित और बुद्धिमान् हो, उसे कवि कहते हैं। शुक्राचार्य जी भार्गवों के अधिपति, सब विधाओं में विशारद, संजीवनी विद्या के जानने वाले और कवियों में प्रधान हैं, इसलिये इनको भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 4। 6
- ↑ भगवान् ने स्वयं कहा है-
नरस्त्वमसि दुर्द्धर्ष हरिर्नारायणो ह्यहम्। काले लोकमिमं प्राप्तौ नरनारायणावृषी।।
अनन्यः पार्थ मत्तस्त्वं त्वत्तश्चाहं तथैव च। नावयोरन्तरं शक्यं वेदितुं भरतर्षभ।।(महा., वन. 12। 46-47)‘हे दुर्द्धर्ष अर्जुन! तू भगवान् नर है और मैं स्वयं हरि नारायण हूँ। हम दोनों एक समय नर और नारायण ऋषि होकर इस लोक में आये थे। इसलिये हे अर्जुन! तू मुझसे अलग नहीं है और उसी प्रकार मैं तुझसे अलग नहीं हूँ। हे भरतश्रेष्ठ! हम दोनों में कुछ भी अन्तर है, यह किसी के जानने में नहीं आ सकता।’
- ↑ महर्षि भृगु के च्यवन आदि सात पुत्रों में शुक्र प्रधान हैं। इन्होंने भगवान् शंकर की आराधना करके संजीवनी-विद्या और जग-मरणरहित वज्र के समान दृढ़ शरीर किया था। भगवान् शंकर के प्रसाद से ही योगविद्या में निपुण होकर इन्होंने योगाचार्य की पदवी प्राप्त की थी। ये दैत्यों के पुरोहित हैं। ‘काव्य’, ‘कवि’ और ‘उशना’ इन्हीं के नामान्तर हैं। पितरों की मानसी कन्या गो से इनका विवाह हुआ था। शण्ड-अमर्क नामक दो पुत्र, जो प्रह्लाद के गुरु थे, इन्हीं से उत्पन्न हुए थे। ये अनेकों अत्यन्त गुप्त और दुर्लभ मन्त्रों के ज्ञाता, अनेकों विद्याओं के पारदर्शी, महान, बुद्धिमान् और परम नीतिनिपुण हैं। इनकी ‘शुक्रनीति’ प्रसिद्ध है। बृहस्पतिपुत्र कच ने इन्हीं से संजीवनी-विद्या सीखी थी। इनकी महाभारत, श्रीमद्भागवत, वायुपुराण, ब्रह्मपुराण, मत्स्यपुराण, और स्कन्दपुराण आदि में बड़ी ही विचित्र और शिक्षाप्रद कथाएँ हैं।
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