श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम् ।
उत्तर- यद्यपि व्याकरण की दृष्टि से ‘वेगवान्’ अर्थ नहीं बनता परंतु टीकाकारों ने यह अर्थ भी माना हैं इसलिये कोई माने तो मान भी सकते हैं। वायु वेगवानों में (तीव्र गति से चलने वालों में) भी सर्वश्रेष्ठ माना गया है और पवित्र करने वालों में भी। अतः दोनों प्रकार से ही वायु की श्रेष्ठता है। प्रश्न- यहाँ ‘राम’ शब्द किसका वाचक है और उनको अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘राम’ शब्द दशरथपुत्र भगवान् श्रीरामचन्द्र जी का वाचक है। उनको अपना स्वरूप बतलाकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि भिन्न-भिन्न प्रकार की लीला करने के लिये मैं ही भिन्न-भिन्न रूप धारण करता हूँ। श्रीराम में और मुझमें कोई अन्तर नहीं है, स्वयं मैं ही श्रीराम रूप में अवतीर्ण होता हूँ। प्रश्न- मछलियों में मगर को अपनी विभूति बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जितने प्रकार की मछलियाँ होती है उन सबमें मगर बहुत बड़ा और बलवान् होता है; इसी विशेषता के कारण मछलियों में मगर को भगवान् ने अपनी विभूति बतलाया है। प्रश्न- नदियों में जाह्नवी (गंगा)- को अपना स्वरूप बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- जाह्नवी अर्थात् श्रीभागीरथी गंगाजी समस्त नदियों में परमश्रेष्ठ हैं; ये श्रीभगवान् के चरणोदक से उत्पन्न, परम पवित्र हैं।[1] पुराण और इतिहासों में इनका बड़ा ही भारी माहात्म्य बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त यह बात भी है कि एक बार भगवान् विष्णु स्वयं ही द्रवरूप होकर बहने लगे थे और ब्रह्मा जी के कमण्डलु में जाकर गंगारूप हो गये थे। इस प्रकार साक्षात् ब्रह्मद्रव होने के कारण भी गंगा जी अत्यन्त माहात्म्य है।[2]’ इसीलिये भगवान् ने गंगा को अपना स्वरूप बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य पादावनेजपवित्रतया नरेन्द्र।
स्वर्धुन्यभून्नभसि सा पतती निमार्ष्टि लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः।। (श्रीमद्भागवत 8। 21। 4)‘हे राजन! वह ब्रह्मा जी के कमण्डलु का जल, भगवान् के चरणों को धोने से पवित्रतम होकर स्वर्ग-गंगा (मन्दाकिनी) हो गया। वह गंगा भगवान् की निर्मल कीर्ति के समान आकाश से पृथ्वी पर गिरकर अब तक तीनों लोकों को पवित्र कर रही है।’
न ह्येतत्परमाश्चर्य स्वर्धुन्या यदिहोदितम्।
अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिदः।।
सन्निवेश्य मनो यस्मिन्छ्द्धया मुनयोऽमलाः।
त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम्।। (श्रीमद्भागवत 9। 9। 14-15)‘जिन अनन्त भगवान् के चरण-कमलों में श्रद्धापूर्वक भलीभाँति चित्त को लगाकर निर्मल हृदय मुनिगण तुरंत ही दुस्त्यज त्रिगुणों के प्रपंच को त्यागकर उनके स्वरूप बन गये हैं, उन्हीं चरण-कमलों से उत्पन्न हुई, भव-बन्धन को काटने वाली भगवती गंगा जी का जो माहात्म्य यहाँ बतलाया गया है, इसमें कोई बड़े आश्चर्य की बात नहीं है।’
- ↑ जगज्जननी महेश्वरी दक्षकन्या सती के देह त्याग करने पर जब भगवान् शिव तप करने लगे, तब देवताओं ने जगन्माता की स्तुति की। महेश्वरी प्रकट हुईं। देवताओं ने पुनः शंकर जी को वरण करने के लिये उनसे प्रार्थना की। देवी ने कहा- ‘मैं दो रूपों में सुमेरुकन्या मेनका के गर्भ से शैलराज हिमालय के घर प्रकट होऊँगी।’ तदनन्तर वे पहले गंगारूप में प्रकट हुईं। देवता उनकी स्तुति करते हुए उन्हें देवलोक में ले गये। वहाँ वे मर्तिमती हो शंकर जी के साथ दिव्य कैलाशधाम को पधार गयीं और ब्रह्माजी की प्रार्थना पर अन्तर्धानांश से अर्थात् निराकारूप से उनके कमण्डलु में स्थित हो गयीं (अन्तर्धानांशभागेन स्थिता ब्रह्मकमण्डलौ)। ब्रह्मा जी कमण्डलु में उन्हें ब्रह्मलोक ले गये। तदन्तर एक बार भगवान् शंकर जी गंगा जी सहित वैकुण्ठ में पधारे। वहाँ भगवान् विष्णु के अनुरोध करने पर उन्होंने गान किया। वे जो रागिनी गाते, वही मूर्तिमती होकर प्रकट हो जाती। वे ‘श्री’ रागिनी गाने लगे, तब वह भी प्रकट हो गयीं। उस रागिनी से मुग्ध होकर रसमय भगवान् नारायण स्वयं रसरूप होकर बह गये। ब्रह्माजी ने सोचा- ‘ब्रह्म से उत्पन्न संगीत ब्रह्ममय है और स्वयं ब्रह्म हरि भी इस समय द्रवीभूत हो गये हैं; अतएव ब्रह्ममयी गंगा जी इन्हें संवरण कर लें।’ यह विचारकर उन्होंने ब्रह्मद्रव से कमण्डलु का स्पर्श कराया। स्पर्श होते ही सारा जल गंगा जी में मिल गया और निराकारा गंगाजी जलमयी हो गयीं। ब्रह्माजी फिर ब्रह्मलोक में चले गये। इसके बाद जब भगवान् विष्णु ने वामन-अवतार में अपने सात्त्विक पाद से समस्त द्युलोक को नाप लिया, तब ब्रह्मा जी ने कमण्डलु के उसी जल से भगवच्चरण को स्नान कराया। कमण्डलु का जल प्रदान करते ही वह चरण वहीं स्थिर हो गया और भगवान् के अन्तर्धान होने पर भी उनका दिव्यचरण वहीं स्वर्ग-गंगा के साथ रह गया। उसी से उत्पन्न गंगाजी को महान् तप करने भगीरथी अपने पूर्वपुरुषों का उद्धार करने के लिये इस लोक में लाये। यहाँ भी श्रीशंकरजी ने उनको मस्तक में धारण किया। गंगाजी के माहात्म्य की यह बड़ी ही सुन्दर, उपदेशप्रद और विचित्र कथा विस्तारपूर्वक बृहद्धर्मपुराण मध्य खण्ड के बारहवें अध्याय से अट्ठाईसवें अध्याय तक पढ़नी चाहिये।
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