|
दशम अध्याय
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।। 22 ।।
मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और भूत प्राणियों की चेतना अर्थात जीवनी शक्ति हूँ।। 22 ।।
प्रश्न- ‘वेदों में सामदेव मैं हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व- इन चारों वेदों में सामवेद अत्यन्त मधुर संगीतमय तथा परमेश्वर की अत्यन्त रमणीय स्तुतियों से युक्त् है; अतः वेदों में उसकी प्रधानता है। इसलिये भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- ‘देवों में मैं इन्द्र हूँ, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, आदि जितने भी देवता हैं, उन सबके शासक और राजा होने के कारण इन्द्र सबमें प्रधान हैं, अतः उनको भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- ‘इन्द्रियों में मैं मन हूँ’; इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- चक्षु, श्रोत्र, त्वचा, रसना, घ्राण, वाक्, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा तथा मन- इन ग्यारह इन्द्रियों में मन अन्य दसों इन्द्रियों का स्वामी, प्रेरक, उन सबसे सूक्ष्म और श्रेष्ठ होने के कारण सबमें प्रधान है। इसलिये उसको भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
प्रश्न- ‘भूतप्राणियों की चेतना मैं हूँ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- समस्त प्राणियों की जो ज्ञानशक्ति है जिसके द्वारा उनको दुःख-सुख का और समस्त पदार्थों का अनुभव होता है, जो अन्तःकरण की वृत्तिविशेष है। तेरहवें अध्याय के छठे श्लोक में जिसकी गणना क्षेत्र के विकारों में की गयी है, उस ज्ञानशक्ति का नाम ‘चेतना’ है। यह प्राणियों के समस्त अनुभवों की हेतुभूता प्रधान शक्ति है, इसलिये इसको भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है।
|
|