श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
उत्तर- अदिति के धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु नामक बारह पुत्रों के द्वादश आदित्य कहते हैं।[2] इनमें जो विष्णु हैं, वे इन सबके राजा हैं; और अन्य सबसे श्रेष्ठ हैं। इसीलिये भगवान् ने विष्णु को अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य मैं हूँ- इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि आदि जितने भी प्रकाशमान पदार्थ हैं- उन सबमें सूर्य प्रधान हैं; इसलिये भगवान् ने समस्त ज्योतियों में सूर्य को अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- ‘वायुदेवताओं का ‘मरीचि’ शब्द-वाच्य तेज मैं हूँ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- दितिपुत्र उनचास मरुद्गण दिति देवी के भगवद्ध्यायनरूप व्रत के तेज से उत्पन्न हैं। उस तेज के ही कारण इनका गर्भ में विनाश नहीं हो सकता था।[3] इसलिये उनके इस तेज को भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है। प्रश्न- ‘नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा मैं हूँ’ इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- अश्विनी, भरणी और कृत्तिका आदि जो सत्ताईस नक्षत्र हैं, उन सबके स्वामी और सम्पूर्ण तारा-मण्डल के राजा होने से चन्द्रमा भगवान् की प्रधान विभूति हैं। इसलिये यहाँ उनका भगवान् ने अपना स्वरूप बतलाया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उनचास मरुतों के नाम ये हैं- सत्त्वज्योति, आदित्य, सत्यज्योति, तिर्यग्ज्योति, ज्योतिष्मान्, हरित, ऋतजित्, सत्यजित्, सुषेण, सेनजित्, सत्यमित्र, अभिमित्र, हरिमित्र, कृत, सत्य, ध्रुव, धर्ता, विधर्ता, विधारय, ध्वान्त, धुनि, उग्र, भीम, अभियु, साक्षिप, ईदृक्, अन्यादृक्, यादृक्, प्रतिकृत, ऋक्, समिति, संरम्भ, ईदृक्ष, पुरुष, अन्यादृक्ष, चेतस, समिता, समिदृक्ष, प्रतिदृक्ष, मरुति, सरत, देव, दिश, यजुः, अनुदृक्, साम, मानुष, और विश् (वायुपुराण 67। 123 से 130) गरुड़पुराण तथा अन्यान्य पुराणों में कुछ नामभेद पाये जाते हैं। परंतु ‘मरीचि’ नाम कहीं भी नहीं मिला है। इसीलिये ‘मरीचि’ को मरुत् न मानकर समस्त मरुद्गणों का तेज या किरणें माना गया है। दक्षकन्या मरुत्वती से उत्पन्न पुत्रों को भी मरुद्गण कहते हैं (हरिवंश.)। भिन्न-भिन्न मन्वन्तरों में भिन्न-भिन्न नामों से तथा विभिन्न प्रकार से इनकी उत्पत्ति के वर्णन पुराणों में मिलते हैं।
- ↑
धात मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणस्त्वंश एव च। भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमस्तथा।।
एकादशस्तथा त्वष्टा द्वादशो विष्णुरुच्यते। जघन्यजस्तु सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः।। (महा., आदि. 65। 15-16) - ↑ कश्यपजी की पत्नी दिति के बहुत-से पुत्रों के नष्ट हो जाने पर उसने अपने पति कश्यपजी को अपनी सेवा से प्रसन्न किया। उसकी सम्यक् आराधना से सन्तुष्ट हो तपस्वियों में श्रेष्ठ कश्यपजी ने उसे वर देकर सन्तुष्ट किया। उस समय उसने इन्द्र के वध करने में समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्र का वर माँगा। मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी ने उसे अभीष्ट वर दिया और उस अति उग्र वर को देते हुए वे उससे बोले- ‘यदि तुम नित्य भगवान् के ध्यान में तत्पर रहकर अपने गर्भ को पवित्रता और संयम के साथ सौ वर्ष तक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्र को मारने वाला होगा।’ उस गर्भ को अपने वध का कारण जान देवराज इन्द्र भी विनयपूर्वक दिति की सेवा करने के लिये आ गये। उसकी पवित्रता में कभी बाधा हो तो हम कुछ कर सकें, इसी प्रतीक्षा में इन्द्र वहाँ हर समय उपस्थित रहने लगे। अन्त में सौ वर्ष में जब कुछ दिन ही कम रहे थे तब एक दिन दिति बिना ही चरणशुद्धि किये अपने बिछौने पर लेट गयी। उसी समय निद्रा ने उसे घेर लिया। तब इन्द्र मौका पाकर हाथ में वज्र लेकर उसकी कोख में प्रवेश कर गये और उन्होंने उस महागर्भ के सात टुकड़े कर डाले। इस प्रकार वज्र से पीड़ित होने से वह गर्भ जोर-जोर से रोने लगा। इन्द्र ने उससे पुनः-पुनः कहा कि ‘मत रो।’ किंतु जब गर्भ सात भागों में विभक्त होकर भी न मरा तो इन्द्र ने अत्यन्त कुपित हो फिर एक-एक के सात-सात टुकड़े कर डाले। इस प्रकार एक से उनचास होकर भी वे जीवित ही रहे। तब इन्द्र ने जान लिया कि ये मरेंगे नहीं। वे ही अति वेगवान् मरुत् नामक देवता हुए। इन्द्र ने जो उनसे कहा था कि ‘मा रोदीः; (मत रो), इसलिये वे मरुत् कहलाये (विष्णुपुराण, प्रथम अंश, अध्याय 21)।
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज