श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
उत्तर- जो समस्त प्राणियों को उत्पन्न करता है, उसे ‘भूतभावन’ कहते हैं; जो समस्त प्राणियों को नियम में चलाने वाला सबका शासक हो- उसे ‘भूतेश’ कहते हैं; जो देवों का भी पूजनीय देव हो, उसे ‘देवदेव’ कहते हैं; समस्त जगत् के पालन करने वाले स्वामी को ‘जगत्पति’ कहते हैं तथा जो क्षर और अक्षर दोनों से उततम हो उसे ‘पुरुषोत्तम’ कहते हैं। यहाँ अर्जुन ने इन पाँचों सम्बोधनों को प्रयोग करके यह भाव दिखलाया है कि आप समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाले, सबके नियन्ता, सबके पूजनीय, सबका पालन-पोष्ण करने वाले तथा ‘अपरा’ और ‘परा’ प्रकृति नामक जो क्षर और अक्षरपुरुष हैं, उनसे उत्तम साक्षात् पुरुषोत्तम भगवान हैं। प्रश्न- आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं, इस कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस कथन से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप समस्त जगत् के आदि हैं; आपके गुण, प्रभाव, लीला, माहाम्म्य और रूप आदि अपरिमित हैं- इस कारण आपके गुण, प्रभाव, लीला, माहात्म्य, रहस्य और स्वरूप आदि को कोई भी दूसरा पुरुष पूर्णतया नहीं जान सकता, स्वयं आप ही अपने प्रभाव आदि को जानते हैं। और आपका यह जानना भी उस प्रकार का नहीं है, जिस प्रकार मनुष्य अपनी बुद्धि-शक्ति के द्वारा शास्त्रादि की सहायकता से अपने से भिन्न किसी दूसरी वस्तु के स्वरूप को जानते हैं। आप स्वयं ज्ञानस्वरूप हैं, अतः अपने ही द्वारा अपने को जानते हैं। आपमें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का कोई भेद नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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