श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
मच्चिता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
उत्तर- भगवान् को ही अपना परम प्रेमी, परम सुहृद्, परम आत्मीय, परम गति और परम प्रिय समझने के कारण जिनका चित्त अनन्यभाव से भगवान् में लगा हुआ है[1]; भगवान् के सिवा किसी भी वस्तु में जिनकी प्रीति, आसक्ति या रमणीय बुद्धि नहीं है; जो सदा-सर्वदा ही भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव लीला और स्वरूप का चिन्तन करते रहते हैं और जो शास्त्रविद्या के अनुसार कर्म करते हुए उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते, व्यवहारकाल में और ध्यानकाल में कभी क्षणमात्र भी भगवान् को नहीं भूलते, ऐसे नित्य-निरन्तर चिन्तन करने वाले भक्तों के लिये ही यहाँ भगवान् ने ‘मच्वित्ताः’ विशेषण का प्रयोग किया है। प्रश्न- ‘मद्गतप्राणाः’ का क्या भाव है? उत्तर- जिनका जीवन और इन्द्रियों की समस्त चेष्टाएँ केवल भगवान् के ही लिये हैं; जिनको क्षणमात्र का भी भगवान् का वियोग असह्य है; जो भगवान् के लिये ही प्राण धारण करते हैं; खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि जितनी भी चेष्टाएँ हैं, उन सबमें जिनका अपना कुछ भी प्रयोजन नहीं रह गया है- जो सब कुछ भगवान् के लिये ही करते हैं, उनके लिये भगवान् ‘मद्गतप्राणाः’ का प्रयोग किया है। प्रश्न- ‘परस्परं बोधयन्तः’ का क्या भाव है? उत्तर- भगवान् में श्रद्धा-भक्ति रखने वाले प्रेमी भक्तों का जो अपने-अपने अनुभव के अनुसार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, लीला, माहात्मय और रहस्य को परस्पर नाना प्रकार की युक्तियों से समझाने की चेष्टा करना है, यही परस्पर भगवान् का बोध कराना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 8। 14; 9। 22
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