श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
धर्मनित्यास्तु ये केचिन्न ते सीदन्ति कर्हिचित्।[1] गजराज त्रिकूट पर्वत पर रहता था। एक दिन वह गरमी से व्याकुल होकर अनेकों बड़े-बड़े हाथियों और हथिनियों के साथ वरुणदेव के ऋतुमान् नामक बगीचे में अत्यन्त विस्तृत सुन्दर सरोवर के तट पर पहुँचा। तदनन्तर वह सरोवर के अंदर घुस गया और अमृततुल्य जल पीकर हथिनियों और उनके छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेलने लगा। उस सरोवर में एक महान् बलवान् ग्राह रहता था। ग्राह ने गजराज का पैर पकड़ लिया। गजराज ने अपना सारा बल लगाकर उससे पैर छुड़ाने की चेष्टा की, परंतु वह न छुड़ा सका। इधर ग्राह उसे जल के अंदर खींचने लगा। साथ के हाथी और हथिनियाँ सूँड़-से-सूँड़ मिलाकर गजराज को बचाने के लिये बाहर खींचने लगे, परन्तु उनकी एक भी नहीं चली। बहुत समय तक यह लड़ाई चलती रही। अन्त में वह कातर होकर भगवान् की शरण हो गया। उसने कहा- यः कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात् ’जो बहुत तेजी के साथ इधर-उधर दौड़ते हुए इस प्रचण्ड वेग वाले महाबली कराल कालरूपी सर्प के भय से भीत होकर शरण में आये हुए प्राणी की रक्षा करता है, तथा जिसके भय से मृत्यु भी [प्राणियों को मारने के लिये] इतस्ततः दौड़ता रहता है- ऐसा जो कोई ईश्वर है, उसकी हम शरण जाते हैं।’ फिर गजराज ने मन-ही-मन भगवान् की बड़ी ही सुन्दर स्तुति की; भगवान् ने भक्त की पुकार सुनी और सुनते ही वे भक्त को बचाने के लिये अधीर हो उठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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