नवम अध्याय
मुझे बड़ी भूख लगी है; मुझे शीघ्र कुछ खाने को दो।’ द्रौपदी ने कहा- ‘भगवन्! खाने के फेर में पड़कर तो मैंने तुम्हें याद ही किया है। मैं भोजन कर चुकी हूँ, अब उस पात्र में कुछ भी नहीं है।’ भगवान् बड़े विनोदी हैं, कहने लगे-
कृष्णे न नर्मकालोऽयं क्षुच्छ्रमेणातुरे मयि।
शीघ्रं गच्छ मम स्थालीमानयित्वा प्रदर्शय।।[1]
‘हे द्रौपदी! इस समय मैं भूख और रास्ते की थकावट से व्याकुल हो रहा हूँ; यह मेरे साथ विनोद का समय नहीं है। जल्दी जाओ और सूर्य का दिया हुआ बर्तन लाकर मुझे दिखलाओ।’
बेचारी द्रौपदी क्या करती? पात्र लाकर सामने रख दिया। भगवान् ने तीक्ष्णदृष्टि से देखा और साग का पत्ता ढूँढ़ निकाला। भगवान् बोले- ‘तुम कह रही थी न कि कुछ भी नहीं है, इस पत्ते से तो त्रिभुवन तृप्त हो जायगा।’ यज्ञभोक्ता भगवान् ने ‘पत्ता’ उठाया और मुँह में डालकर कहा-
विश्वात्मा प्रीयतां देवस्तुष्टश्चास्त्विति यज्ञभुक्। [2]
इस पत्ते से सारे विश्व के आत्मा यज्ञभोक्ता भगवान् तृप्त हो जायँ। साथ ही सहदेव से कहा कि- ‘जाओ ऋषियों को भोजन के लिये बुला लाओ।’ उधर नदी तट पर दूसरा ही गुल खिल रहा था, सन्ध्या करते-करते ही ऋषियों के पेट फूल गये और डकारें आने लगी थीं। शिष्यों ने दुर्वासा से कहा- ‘महाराज! हमारा तो गले तक पेट भर गया है, वहाँ जाकर हम खायेंगे क्या?’ दुर्वासा की भी यही दशा थी, वे बोले- ‘भैया! भगो यहाँ से जल्दी! ये पाण्डव बड़े ही धर्मात्मा, विद्वान् और सदाचारी हैं तथा भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हैं, वे चाहें तो हमें वैसे ही भस्मकर सकते हैं जैसे रूई के ढेर को आग! मैं अभी अम्बरीष वाली घटना भूला नहीं हूँ, श्रीकृष्ण के शरणागतों से मुझे बड़ा भारी डर लगता है।’ दुर्वासा के ये वचन सुन शिष्यमण्डली यत्र-तत्र भाग गयी। सहदेव को कहीं कोई न मिला।
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