नवम अध्याय
प्रश्न- ‘पितृव्रताः’ पद किन मनुष्यों का वाचक है और उनका पितरों को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- पितरों के लिये यथाविधि श्राद्धतर्पण करना, उनके निमित्त ब्राह्मणों को भोजन कराना, हवन करना, जप करना, पाठ-पूजा कराना तथा उनके लिये शास्त्र में बतलाये हुए व्रत और नियमों का भलीभाँति पालन करना आदि पितरों के व्रत हैं और इन सबके पालन करने वालों का वाचक ‘पितृव्रताः’ पद है। जो मनुष्य सकामभाव से इन व्रतों का पालन करते हैं, वे मरने के बाद पितृलोक में जाते हैं और वहाँ जाकर उन पितरों के जैसे स्वरूप को प्राप्त करके उनके जैसे भोग भोगते हैं। यही पितरों को प्राप्त होना है। ये भी अधिक-से-अधिक दिव्य पितरों की आयुपर्यन्त ही वहाँ रह सकते हैं। अन्त में इनका भी पुनरागमन होता है। यहाँ देव और पितरों की पूजा का निषेध नहीं समझना चाहिये। देव-पितृ-पूजा तो यथाविधि अपने-अपने वर्णाश्रम के अधिकारानुसार सबको अवश्य ही करनी चाहिये; परंतु वह पूजा यदि सकामभाव से होती है तो अपना अधिक-से-अधिक फल देकर नष्ट हो जाती है, और यदि कर्तव्यबुद्धि से भगवत्-आज्ञा मानकर या भगवत्-पूजा समझकर की जाती है तो वह भगवत्प्राप्ति रूप महान् फल में कारण होती है। इसलिये यहाँ समझना चाहिये कि देव-पितृकर्म तो अवश्य ही करें; परंतु उनमें निष्कामभाव लाने का प्रयत्न करें।
प्रश्न- ‘भूतेज्याः’ पद किन मनुष्यों का वाचक है और उनका भूतों को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- जो प्रेत और भूतगणों की पूजा करते हैं, उनकी पूजा के नियमों का पालन करते हैं, उनके लिये हवन या दान आदि जो भी कुछ करते हैं, उनका वाचक ‘भूतेज्याः’ पद है। ऐसे मनुष्यों का जो उन-उन भूत-प्रेतादि के समान रूप-भोग आदि को प्राप्त होना है, वही उनको प्राप्त होना है। भूतप्रेतों की पूजा तामसी है तथा अनिष्टफल देने वाली है, इसलिये उसको नहीं करना चाहिये।
प्रश्न- यहाँ ‘मद्याजिनः’ पद किनका वाचक है और उनका भगवान् को प्राप्त होना क्या है?
उत्तर- जो पुरुष भगवान् के सगुण निराकार अथवा साकार-किसी भी रूप का सेवन-पूजन और भजन-ध्यान आदि करते हैं, समस्त कर्म उनके अर्पण करते हैं, उनके नाम का जप करते हैं, गुणानुवाद सुनते और गाते हैं और इसी प्रकार भगवान् की भक्ति-विषयक विविध भाँति के साधन करते हैं उनका वाचक यहाँ ‘मद्याजिनः’ पद है। और उनका भगवान् के दिव्य लोक में जाना, भगवान् के समीप रहना, उनके ही-जैसे दिव्य रूप को प्राप्त होना अथवा उनमें लीन हो जाना-,यही भगवान् को प्राप्त होना है।
प्रश्न- इस वाक्य में ‘अपि’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- ‘अपि’ पद से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मेरे निराकर, साकार, किसी भी रूप की निष्काम भाव से उपासना करने वाला मुझको प्राप्त होता है- इसमें तो कहना ही क्या है, किंतु सकाम भाव से उपासना करने वाला भी मुझे प्राप्त होता है।
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