श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
उत्तर- यह सारा विश्व भगवान् का ही विराटरूप होने के कारण भिन्न-भिन्न यज्ञ-पूजादि कर्मों के भोक्तारूप में माने जाने वाले जितने भी देवता है, सब भगवान् के ही अंग हैं, तथा भगवान् ही उन सबके आत्मा हैं।[1] अतः उन देवताओं के रूप में भगवान् ही समस्त यज्ञादि कर्मों के भोक्ता हैं। भगवान् ही अपनी योगशक्ति के द्वारा सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रयल करते हुए सबको यथायोग्य नियम में चलाते हैं; वे ही इन्द्र वरुण, यमराज, प्रजापति आदि जितने भी लोकपाल और देवतागण हैं- उन सबसे नियन्ता हैं; इसलिये वही सबके प्रभु अर्थात् महेश्वर हैं।[2] प्रश्न- यहाँ ‘तु’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ‘तु’ यहाँ ‘परंतु’ के अर्थ में है। अभिप्राय यह है कि ऐसा होते हुए भी वे भगवान् के प्रभाव को नही जानते, यह उनकी कैसी अज्ञता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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