नवम अध्याय
प्रश्न- यहाँ ‘माम्’ पद किनका वाचक है और उनको यज्ञों द्वारा पूजना क्या है?
उत्तर- यहाँ ‘माम्’ पद भगवान् के अंगभूत इन्द्रादि देवताओं का वाचक है, शास्त्रविधि के अनुसार श्रद्धापूर्वक यज्ञ और पूजा आदि के द्वारा भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करना ही ‘मुझको यज्ञों द्वारा पूजना’ है। यहाँ भगवान् के इस कथन का यह भाव है कि इन्द्रादि देव मेरे ही अंगभूत होने से उनका पूजन भी प्रकारान्तर से मेरा ही पूजन है। किंतु अज्ञानवश सकाम मनुष्य इस तत्त्व को नहीं समझते; इसलिये उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती।
प्रश्न- ‘स्वर्गतिम्’ पद किसका वाचक है? उसके लिये प्रार्थना करना क्या है?
उत्तर- स्वर्ग प्राप्ति को ‘स्वर्गति’ कहते हैं। उपर्युक्त वेदविहित कर्मों द्वारा देवताओं का पूजन करके उनसे स्वर्ग-प्राप्ति की याचना करना ही उसके लिये प्रार्थना करना है।
प्रश्न- ‘पुण्यम्’ विशेषण के सहित ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद किस लोक को लक्ष्य करके कहा गया है और वहाँ ‘देवताओं के दिव्य भोगों का भोगना’ क्या है?
उत्तर- यज्ञादि पुण्यकर्मों के फलरूप में प्राप्त होने वाले इन्द्रलोक से लेकर ब्रह्मलोकपर्यन्त जितने भी लोक हैं, उन सबको लक्ष्य करके यहाँ ‘पुण्यम्’ विशेषण के सहित ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद का प्रयोग किया गया है। अतः ‘सुरेन्द्रलोकम्’ पद इन्द्रलोक का वाचक होते हुए भी उसे उपर्युक्त सभी लोकों का वाचक समझना चाहिये। अपने-अपने पुण्यकर्मानुसार उन लोकों में जाकर-जो मनुष्यलोक में नहीं मिल सकते, ऐसे तेजोमय और विलक्षण देव-भोगों का मन और इन्द्रियों द्वारा भोग करना ही ‘देवताओं के दिव्य भोगों को भोगना’ है।
|