श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञै रिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते ।
उत्तर- ऋक्, यजु और साम-इन तीनों वेदों को ‘वेदत्रयी’ अथवा त्रिविधा कहते हैं। इन तीनों वेदों में वर्णित नाना प्रकार के यज्ञों की विधि और उनके फल में श्रद्धा-प्रेम रखने वाले एवं उसके अनुसार सकामकर्म करने वाले मनुष्यों को ‘त्रैविद्य’ कहते हैं। यज्ञों में सोमलता के रसपान की जो विधि बतलायी गयी है, उस विधि से सोमलता के रसपान करने वालों को ‘सोमपा’ कहते हैं। उपर्युक्त वेदोक्त कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान करने से जिनके स्वर्गप्राप्ति में प्रतिबन्धकरूप पाप नष्ट हो गये हैं, उनको ‘पूतपाप’ कहते हैं। ये तीनों विशेषण ऐसी श्रेणी के मनुष्यों के लिये हैं, जो भगवान् की सर्वरूपता से अनभिज्ञ हैं और वेदोक्त कर्मकाण्ड पर प्रेम और श्रद्धा रखकर पापकर्मों से बचते हुए सकामभाव से यज्ञादि कर्मों का विधिपूर्वक अनुष्ठान किया करते हैं। प्रश्न- ‘पूतपापाः’ से यदि यह अर्थ मान लिया जाय कि जिनके समस्त पाप सर्वथा धुल गये हैं, वे ‘पूतपाप’ हैं, तो क्या हानि है? उत्तर- अगले श्लोक में पुण्यों का क्षय होने पर उनका पुनः मृत्युलोक में लौट आना बतलाया गया है। यदि उनके सभी पाप सर्वथा नष्ट हो गये होते तो पुण्यकर्मों के क्षय होने पर उसी क्षण उनकी मुक्ति हो जानी चाहिये थी। जब पाप-पुण्य दोनों ही का अभाव हो गया, तो फिर जन्म में कोई कारण ही नहीं रह गया; ऐसी अवस्था में पुनरागमन का प्रश्न नहीं उठना चाहिये था। परंतु उनका पुनरागमन होता है; इसलिये जैसा अर्थ किया गया है, वही ठीक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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