श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् ।
उत्तर- प्राप्त करने की वस्तु का नाम ‘गति’ है। सबसे बढ़कर प्राप्त करने की वस्तु एकमात्र भगवान् ही हैं, इसीलिये उन्होंने अपने को ‘गति’ कहा है। ‘परा गति’, ‘परमा गति’, ‘अविनाशी पद’ आदि नाम भी इसीके हैं। प्रश्न- ‘भर्ता’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- पालन-पोषण करने वाले को ‘भर्ता’ कहते हैं। सम्पूर्ण जगत् का रक्षण और पालन करने वाले भगवान् ही हैं, इसीलिये उन्होंने अपने को ‘भर्ता’ कहा है। प्रश्न- ‘प्रभुः’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- शासन करने वाला स्वामी ‘प्रभु’ कहलाता है। भगवान् ही सबके एकमात्र परम प्रभु हैं। ये ईश्वरों के महान् ईश्वर, देवताओं के परम दैवत, पतियों के परम पति, समस्त भुवनों के स्वामी और परम पूज्य परमदेव हैं[1]; तथा सूर्य, अग्नि, इन्द्र, वायु और मृत्यु आदि सब इन्हीं के भय से अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित हैं;[2] इसलिये भगवान् ने अपने को ‘प्रभु’ कहा है। प्रश्न- ‘साक्षी’ पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर- भगवान् समस्त लोकों को, सब जीवों को और उनके शुभाशुभ समस्त कर्मों को जानने और देखने वाले हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य में कहीं भी, किसी प्रकार का ऐसा कोई भी कर्म नहीं है, जिसे भगवान् न देखते हों; उनके-जैसा सर्वज्ञ अन्य कोई भी नहीं है, वे सर्वज्ञता की सीमा हैं। इसलिये उन्होंने अपने को ‘साक्षी’ कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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