श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
5. सिद्धि और असिद्धि में समभाव रखते हुए आसक्ति एवं फलेच्छा का त्याग करके शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्मों का आचरण करना।[1] 6. श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सब कुछ भगवान् का समझकर केवल भगवान् के लिये ही यज्ञ, दान, तप और सेवा आदि शास्त्रोक्त कर्मों का आचरण करना।[2] 7. सम्पूर्ण कर्मों को एवं अपने-आपको भगवान् में अर्पण करके, ममता और आसक्ति से रहित होकर निरन्तर भगवान् का स्मरण करते हुए, कठपुतली की भाँतिः भगवान् जैसे भी, जो कुछ भी करावें, प्रसन्नता के साथ करते रहना।[3] इनके सिवा और भी बहुत-से साधन हैं तथा जो साधन मन को वश में करने के बतलाये गये हैं, मन के वश में होने के बाद, श्रद्धा और प्रेम के साथ परमात्मा की प्राप्ति के उद्देश्य से करते रहने पर उनके द्वारा भी समत्वयोग की प्राप्ति हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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