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षष्ठ अध्याय
प्रश्न- ‘तु’ के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर- मन को वश में न करने वाले पुरुष से, वश में करने वाले की विलक्षणता दिखलाने के लिये ही उसका प्रयोग किया गया है।
प्रश्न- मन को वश में कर चुकने वाले पुरुष को ‘प्रयत्नशील’ होने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर- मन के वश में हो जाने के बाद भी यदि प्रयत्न न किया जाय- उस मन को परमात्मा में पूर्णतया लगाने का तीव्र साधन न किया जाय; तो उससे समत्वयोग की प्राप्ति अपने आप नहीं हो जाती। अतः ‘प्रयत्न’ की आवश्यकता सिद्ध करने के लिये ही ऐसा कहा गया है।
प्रश्न- मन के वश में हो जाने पर समत्वरूप योग की प्राप्ति के साधन क्या हैं?
उत्तर- अनेकों साधन हैं, उनमें से कुछ ये हैं -
- कामना और सम्पूर्ण विषयों को त्यागकर विवेक और वैराग्य से युक्त, पवित्र, स्थिर और परमात्ममुखी बुद्धि के द्वारा मन को नित्य-निरन्तर विज्ञानानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में लगाकर उसके सिवा और किसी का भी चिन्तन न करना।[1]
- सम्पूर्ण चराचर जगत् के बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सब ओर एकमात्र सर्वव्यापक नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा को ही परिपूर्ण देखना, अपने सहित समस्त दृश्यप्रपंच को भी परमात्मा का ही स्वरूप समझना और जैसे आकाश में स्थित बादलों के ऊपर, नीचे, बाहर, भीतर एकमात्र आकाश ही परिपूर्ण हो रहा है तथा वह आकाश ही उसका उपादान कारण भी है वैसे ही अपने सहित इस सारे ब्रह्माण्ड को सब ओर से परमात्मा के द्वारा ओत-प्रोत और परमात्मा का ही स्वरूप समझना।[2]
- शरीर, इन्द्रिय और मन द्वारा संसार में जो कुछ भी क्रिया हो रही है, वह गुणों के द्वारा ही हो रही है, अर्थात् इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं, ऐसा समझकर अपने को उन सब क्रियाओं से सर्वथा पृथक् द्रष्टासाक्षी समझना और नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मा में अभिन्नभाव से स्थित होकर समष्टिबुद्धि के द्वारा अपने उस निराकार अनन्त चेतनस्वरूप के अन्तर्गत संकल्प के आधार पर स्थित दृश्यवर्ग को क्षणभंगुर देखना।[3]
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